2122 -1212 -22
मुझ पे तू मेहरबां नहीं होता
मैं तेरा क़द्रदां नहीं होता।
बोलने वाले कब ये समझेंगे
चुप है जो बेज़ुबां नहीं होता।
कोई अरमान हम भी बोते. . .गर
मौसम-ए-दिल ख़िज़ाँ नहीं होता।
ख्वाहिशो सीने पे न दस्तक दो
अब मेरा दिल यहां नहीं होता।
जो बचाए किसी को कातिल से
वो सदा पासबाँ नहीं होता।
चाहे कितना उठे धुआँ ऊपर
वो कभी आसमाँ नहीं होता।
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय रवि सर जी,,, रचना की सराहना और आपके बहुमूल्य सुझावों के लिए बहुत धन्यवाद..
अब मेरा दिल यहॉं नहीं होता,,,इस मिसरे को दुरुस्त करने की कोशिश कर रहा हूँ लेकिन हो नहीं पा रहा किसी तरह
आदरणीय गुरप्रीत जी क्या कहने बहुत अच्छे अशआर खास तौर पर ये दो अश्आर हमें बहुत पसंद आए
बोलने वाले कब ये समझेंगे
चुप है जो बेज़ुबां नहीं होता। वाह वाह
चाहे कितना उठे धुआँ ऊपर
वो कभी आसमाँ नहीं होता। बहुत खूब गुरप्रीत जी
अब बात करे मतले की तो विद्वत जन की राय आ चुकी है फिर भी एक नजरिया है देखने का मतले को ऐसे कर के देखे
तू अगर महरबां नहीं होता
मै तेरा कद्रदां नहीं होता
अब मेरा दिल यहॉं नहीं होता इस के वाक्य विन्यास में कुछ कमी लग रही है । धुआं चाहे जितना उपर उठ ले वो आकाश नहीं बन सकता यो धुआं चाहे कितना उपर उठ ले वो आकाश नहीं बन सकता । इन दो वाक्यों के अनुसार आप जितना और कितना के अंतर और अपने भाव के अनुसार उसके प्रयोग को समझ सकते है । सादर
भाव बहुत ही दिलकश हैं ... रचना अच्छी लगी। बधाई।
बहुत खूब
खूब सुन्दर रचना
शुक्रिया आदरणीय मोहम्मद आरिफ जी,,, जी सहमत हूँ उस्तादों से सीखने की कोशिश है और रहेगी
शुक्रिया आदरणीय गिरिराज जी
शुक्रिया आदरणीय लक्ष्मण धामी जी
शुक्रगुज़ार हूँ आदरणीय समर कबीर जी,, इस मंच पर अपनी रचना लेकर आने का यही मकसद होता है की अपनी कमियों को जान सकें,, और उन में सुधर की कोशिश करें,,चौथे शेर में रदीफ़ काम करेगा,, इस के बारे में मुझे सन्देह तो था,, लेकिन कन्फर्म नहीं था, अब बात स्पष्ट हो गई,,
सर जी अगर इस शेर के सानी मिसरे के दोष को एक पल के लिए नज़रअंदाज़ करते हुए केवल ऊला मिसरे की बात हो तो क्या ऐसा कुछ कहना उचित होगा,,
"ख्वाहिशो मत टटोलो सीने में" या "ख्वाहिशो मत टटोलो सीने को"
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