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लकीरों में तो कुछ रक्खा नहीं है(गजल) /सतविन्द्र कुमार राणा

गजल
बह्र 1222 1222 122

फरेबी तू जो बन पाया नहीं है
तभी सिक्का तेरा चलता नहीं है

नहीं नीयत में ही जब काम करना
कहे क्यों तू, मिला मौका नहीं है

ज़ुबाँ में सादगी उसकी झलकती
भले देहात में रहता नहीं है

जिया था तू वतन के वास्ते पर
शहादत का तेरी चर्चा नहीं है

सरे बाज़ार देखो झूठ बिकता
जो' बिक जाए वो' फिर सच्चा नहीं है

लिखी तकदीर हाथों से ही जाती
लकीरों में तो कुछ रक्खा नहीं है

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on October 20, 2017 at 11:59am
प्रयास को मान देने के लिए सादर आभार आ फूल सिंह जी
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on October 20, 2017 at 11:58am
आदरणीय रवि शुक्ल सर,उत्साहवर्धन के लिए बहुत-बहुत आभार। नमनसादर
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on October 20, 2017 at 11:58am
आदरणीय बसन्त कुमार शर्मा जी,अनुमोदन एवं उत्साहवर्द्धन के लिए बहुत-बहुत आभार,नमन सादर
Comment by PHOOL SINGH on August 31, 2017 at 4:10pm

बेहतरीन रचना

Comment by Ravi Shukla on August 8, 2017 at 9:54am

आदरणीय सतविन्‍द्र जी अच्‍छी गजल कही आपने शेर दर शेर मुबारक बाद कुबल करें ।

Comment by बसंत कुमार शर्मा on August 7, 2017 at 8:36pm

बहुत खूब 

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