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ठगाना हमारी नियति बन गई है,
और ठगना उनकी निति,
न हम अपनी नियति बदल रहे है,
और ना वो अपनी निति,
सौरभ भईया, जो छोभ, जो उबाल, जो एक हुक आपके मन में हिलोर मार रहा है उसको हम लोग भी बड़ी सिद्दत से महसूस कर पा रहे है, आपकी रचना सब कुछ कह सकने में समर्थ है, मैं शमशाद भाई की बातों से बिलकुल इतफाक रखता हूँ , शिल्प निभाने के चक्कर मे कथ्य ही न रहे ऐसी रचना किस काम की, रचना वाही जो आम जन को समझ में आये |
शानदार अभिव्यक्ति हेतु सौरभ भईया को बहुत बहुत बधाई |
सौरभ जी..मैं काव्य, छंद संरचना और शिल्प से अधिक कथ्य को मोल देता हूँ, किसी कविता में ये तमाम चीजें हो, गुनी रात दिन चर्चा करें और कथ्य न हो, मेरे लिये दो कौडी की है और समाज के लिये एक अड़चन, लिहाजा आपकी कविता का कथ्य प्रासंगिक है और यथार्थ का चमकीला शीशा दिखाता है कि आँखें चुधियाँ जायें...अभी तक संपादक महोदय नज़र नहीं आये?? सादर
..चिरकाल से सोयी हुई किसी कौम को जगाने की उत्कंठा, जिसके भीतर ग्लानि भी है और ज़ख्मों के खुरडों को खुरचने की चाह भी...एक चाह भी, कि बस एक बार और न ठगे जायें और कश्ती किनारे पहुँच जाये...
शमशाद भाई, जो है, जैसा है, वही आपने देखा, सो आभारी हूँ..
मैं इस रचना के प्रारम्भ में लिखने जा रहा था कि इस रचना में तथाकथित शिल्प या भंगिमा-शैली नहीं, सीधा-सीधा कथ्य देखिये.. क्षोभ महसूसिये. आप पेज तक आये इस हेतु पुनः-पुनः आभार.
ये कविता नहीं बल्कि किसी देश-राष्ट्र का काव्य पोस्टमार्टम है, चिरकाल से सोयी हुई किसी कौम को जगाने की उत्कंठा, जिसके भीतर ग्लानि भी है और ज़ख्मों के खुरडों को खुरचने की चाह भी...एक चाह भी, कि बस एक बार और न ठगे जायें और कश्ती किनारे पहुँच जाये....बहुत सार्थक कविता है, सौरभ जी, बधाई स्वीकार करें.सादर
रे बाबा, रे बाबा..!
हमें न बताना
उठाना न जगाना
हम निश्चिंत हैं
दिवा-स्वप्नों में खोये-से
लापरवाह सोये-से...
vah kya bat hain , saty
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