2122 1212 112/22
गर अँधेरा है तेरी महफिल में
हसरत ए रोशनी तो रख दिल में
खुद से बेहतर वो कैसे समझेगा ?
सारे झूठे हैं चश्म ए बातिल में
क़त्ल करने की ख़्वाहिशों के सिवा
और क्या ढूँढते हो क़ातिल में
बेबसी, दर्द और कुछ तड़पन
क्या ये काफी नहीं था बिस्मिल में ?
फ़िक्र क्या ? बाहरी जिया न मिले
रोशनी है अगर तेरे दिल में
कोई तो कोशिश ए नजात भी हो
अश्क़ बारी के सिवा मुश्किल में
साहिलों सा नही है साहिल अब
कोई तूफाँ छिपा है साहिल में
प्यार का क्या सबूत दूँ उनको
ज़ह’न के जो बसे हैं तिल तिल में
हर तगाफ़ुल मिला जो तुमसे मुझे
जुड़ गया ज़िन्दगी के हासिल में
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय रवि शुक्ला जी,
उर्दू शायरी में फारसी और अरबी के शब्दों में इजाफत का प्रयोग बहुत हुआ है :
कितनी बे-नूर थी दिन भर नज़र-ए-परवाना
रात आई तो हुई है सहर-ए-परवाना - शहज़ाद अहमद
ऐ ग़मे-दिल क्या करूं, ऐ वहशते-दिल क्या करूं - मजाज
कैदे-हयात बंदे-ग़म अस्ल में दोनों एक है - ग़ालिब
नज़रे-बद, मादरे - वतन, बंदे-कबा, बर्के-खिरमनसोज .... इत्यादि हजारो प्रयोग हैं.
सादर
आदरणीय नीरज जी जहां तक हमें पता है दो अलग भाषा के शब्दों में इजाफत सहीनहीं इसलिए चश्में बातिल में इजाफत सही प्रयोग होगा चश्म और बातिल दोनो ही फारसी के अल्फाज है । सादर
आदरणीय गिरिराज जी,
बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है. दाद के साथ मुबारकबाद.
ये स्पष्ट नहीं हुआ कि 'नज़र-ए-बातिल' पर जनाब समर कबीर साहब को आपत्ति क्यों है.
सादर
आदरनीय समर भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।
आपकी उचित सलाह के लिये आपका हार्दिक अभार , एक नई बात पता चली । सलाहानुसार सुधार कर लूंगा । पुनः आभार ।
आदरनीया अलका जी , गज़ल की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिये आपका हृदय से आभार ।
आदरनीय सुरेन्द्र भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभार ।
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