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प्रेम कहलाता है .......संतोष

मैंने जो गाया था कभी,तूने जो सुना ही नहीं
स्नेह,प्रेम,गीत ,वही तो कहलाता है

सावन की फुहारों में,आसमाँ की राहों से
धरती की माटी को भी ,वो तो चूम जाता है

अख़ियों ही अख़ियों से दिल तक जाने वाला,
यही तो वो रोग है जो ,प्रेम कहलाता है

कभी नीम की निम्बोली में भी अमूवा का स्वाद दे वो,
ऐसी स्मृतियों को कोई भूल कहाँ पाता है

नयनों की बरखा में यादों का सहारा लिये,
पलकों के द्वार को भी ,वो तो भीगो जाता है

सावनों के झूलों पे ,बड़गद के पेड़ों से ,
ठंडी पुरवाई सा ,वो तो छू जाता है

अपने ही रंग में,अपने ही ढंग में ,
अपनों को अपना बनाता चला जाता है

कभी श्याम कभी मीरा ,कभी रांझा कभी हीर ,
कभी दीया और बाती सा वो प्रेम बन जाता है
#संतोष खिरवड़कर
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by santosh khirwadkar on August 10, 2017 at 6:41pm
चरण स्पर्श आदरणीय समर साहब, तहेदिल से शुक्रिया!आप का आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन सदा अपेक्षित!!
Comment by Samar kabeer on August 10, 2017 at 6:12pm
जनाब संतोष जी आदाब,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by santosh khirwadkar on August 10, 2017 at 11:30am
शुक्रिया आदरणीय आरिफ़ साहब, आप के प्रतिक्रियानुसार सिखने का प्रयत्न जारी है!किंतु इसे छंदबद्ध कैसे किया जाये इस बात से अनभिज्ञ हूँ !!
Comment by Mohammed Arif on August 10, 2017 at 11:17am
आदरणीय संतोष खिरवड़कर जी आदाब, बहुत ही बेहतरीन रचना । काश, छंदबद्ध होती । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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