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मंज़रे ख़्वाब से निकल जायें
अब हक़ीकत से ही बहल जायें
ज़ख़्म को खोद कुछ बड़ा कीजे
ता कि कुछ कैमरे दहल जायें
तख़्त की सीढ़ियाँ नई हैं अब
कोई कह दे उन्हें, सँभल जायें
मेरे अन्दर का बच्चा कहता है
चल न झूठे सही, फिसल जायें
शह’र की भीड़ भाड़ से बचते
आ ! किसी गाँव तक निकल जायें
दूर है गर समर ज़रा तुमसे
थोड़ा पंजों के बल उछल जायें
चाहत ए रोशनी में दम है अगर
जुगनुओं की तरह से जल जायें
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय राज भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरनीय तसेद्द्क भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार । आपकी सलाह उचित है , पर भाव विरोधी हो रहे हैं , अतः मै स्वीकार करने मे असमर्थ हूँ ... क्षमा कीजियेगा ।
आ. सलीम भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका
सुन्दर ग़ज़ल कही भाई गिरिराज भंडारी जी. बधाई हो, मतला खासकर पसंद आया. सादर
आदरनीय कंवर करतार भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
आदरनीय बसंत भाई , हौसला अफज़ाई का शुक्रिया आपका
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