सिहरन ....
ये किसके आरिज़ों ने चिलमन में आग लगाई है।
ये किसकी पलकों ने फिर ली आज अंगड़ाई है।
होने लगी सिहरन सी अचानक से इस ज़िस्म में -
ये किसकी हया को छूकर नसीमे सहर आई है।
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ज़न्नत ...
वो उनके शहर की हवाओं के मौसम l
कर देते हैं यादों से आँखों को पुरनम l
तमाम शब रहती है ख़्वाबों में ज़न्नत -
पर्दों से हया के छलकती .है शबनम l
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी भाई साहिब सृजन के भावों अपनी आत्मीय स्वीकृति एवं सुझाव का दिल से आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब ... प्रस्तुति को अपनी सहमति देती प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया का तहे दिल से शुक्रिया। भविष्य में इसका ध्यान रखूंगा सर।
आदरनीय सुशील भाई , मुक्तक के भाव प्यारे लगे , बधाई स्वीकार करें । बाक़ी मै भी आ. समर भाई जी से सहमत हूँ , लय बाधित लग रही है ।
आदरणीया कल्पना भट्ट जी मुक्तकों अपनी मधुर प्रशंसा से शोभित करने का हार्दिक आभार।
दोनों ही रचनाएँ सुंदर है क्या इनको नज्म कहेंगे या मुक्तक आदरणीय ? सादर बधाई |
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