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गज़ल- आज ढ़लती धूप सी हैं

2122/2122/2122/212

आज ढ़लती धूप सी हैं दादी नानी फिर कहाँ
तिफ़्ल सुनले चाँद परियों की कहानी फिर कहाँ

घर घरोंदे गुड्डे गुडिया राजा रानी फिर कहाँ
कश्तियाँ कागज की ये बारिश का पानी फिर कहाँ

छोड़ ये टीवी मोबाइल दौड़कर तितली पकड़
बचपना जी भरके जी ऐसी रवानी फिर कहाँ

पेड़ों की शाखें हैं सूनी खेल के मैदान चुप
जूझना हालात से सीखे जवानी फिर कहाँ

माँ के आंचल से पिता के कांधे तक फैली थी जो
बचपने की वो हुकूमत हुक्मरानी फिर कहाँ

बात हो उपदेश देने की किसी को मुफ्त में
चूकता है ऐसा मौका कोई ज्ञानी फिर कहाँ

बाग़बाँ दुश्मन बना है तेरा एे नन्ही कली
बाग में तुझको मयस्सर बाग़बानी फिर कहाँ

हर तरफ बेहूदा फ़िकरे तंज पीछे दौड़ते
अपने पर फैलाएगी बिटिया सयानी फिर कहाँ

घर नया गाड़़ी नई तहज़ीब भी जिसकी नई
वो रखे माँ बाप सी चीजें पुरानी फिर कहाँ

कोख का मोती वतन पर जो ख़ुशी से वारती
कौन है उस माँ सा दानी उसका सानी फिर कहाँ
----------------------------------------------------------------------------
गजेन्द्र श्रोत्रिय
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Gajendra shrotriya on September 3, 2017 at 9:52pm
हार्दिक आभार आदरणीय नीरज कुमार जी।
Comment by Ajay Kumar Sharma on September 3, 2017 at 3:26pm
बहुत ही शानदार गजल..
Comment by Mohammed Arif on September 2, 2017 at 7:03pm
आदरणीय गजेंद्र जी आदाब, बहुत ही बेहतरीन तरही ग़ज़ल । अच्छे अश'आर । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Niraj Kumar on September 2, 2017 at 5:40pm

आदरणीय गजेन्द्र जी,

खूबसूरत ग़ज़ल हुई है. दाद के साथ मुबारक बाद.

सादर

Comment by Gajendra shrotriya on September 2, 2017 at 2:28pm
आदाब आदरणीय समर कबीर साहिब। बहुत शुक्रिया आपका।
Comment by Samar kabeer on September 2, 2017 at 10:19am
जनाब गजेन्द्र जी आदाब,बहुत उम्दा तरही ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

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