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अपने हसीन रुख़ से हटा कर निक़ाब को,
शर्मिन्दा कर रहा है कोई माहताब को
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कोई गुनाहगार या परहेज़गार हो,
रखता है रब सभी केअमल के हिसाब को
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उनकी निगाहे नाज़ ने मदहोश कर दिया,
मैं ने छुआ नहीं है क़सम से शराब को
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दिल चाहता है उनको दुआ से नावाज़ दूँ,
जब देखता हूँ बाग में खिलते गुलाब को
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ये ज़िन्दगी तिलिस्म के जैसी है दोस्तो,
क्या देखते नहीं हो बिखरते हुबाब को
.
जुगनू मुक़ाबले पे न आ जाएं अब कहीं,
इस बात ने परेशां किया आफ़ताब को
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इन्सान बन गया है "रज़ा" आदमी से वह,
दिलसे पढ़ा है जिसने ख़ुदा की किताब को
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"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
ये ज़िंदगी तिलिस्म की तरहा है दोस्तो ”
क्या देखते नहीं हो बिखरते हुबाब को ”
.
जुगनू मुक़ाबले पे न आ जाएं अब कहीं ”
इस बात ने परेशां किया आफ़ताब को ” बहुत खूब आदरणीय | हार्दिक बधाई |
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