पिताजी चाहे सही करें या गलत, बड़की बुआ के लिए तो वह हमेशा सीधे सच्चे और साधु ही थे ।मज़ाल कि एक शब्द भी उनके खिलाफ सुन लें।
"ऐसा है कुसुम कुमारी!पिछले जनम में मोती दान किये होंगे ,तभई छुटके जैसन पति मिला।ये फिजूल का रोना- धोना करके छुटके की छवि मटियामेट करवे की कोशिश ना करो ।कछु समझी का नहीं?"
पिताजी का इस तरह पक्ष लेने पर सब्जी काटती सुगंधा अंदर तक सुलग गयी।
"जिज्जी मैं कब किसी से कुछ कह रही हूं?"उसने पल्लू से नीला पड़ा बाजू ढँकते हुए कहा।
"मेरे सामने बनो मत !खूब जान रही हूं तुम्हारी चालाकी ।बच्चों के मन में बाप के लिए ज़हर ऐसे ही भर गया क्या?सुकर करो इस युग में ऐसा सीधा ,साधू मेरा भाई मिल गया।भागसाली हो। " वह तीखी जुबान और कर्कश गले की जुगलबंदी कर बोली।
"सही है बुआ! तो आप क्या कम भागसाली हो ।पिताजी सरीखे फूफाजी भी तो सीधे सच्चे आपको भाग से मिले हैं।"पति से कई बार पुज चुकी बड़की बुआ को सुगन्धा की बात बुरी तरह चुभ गयी।
" आय -हाय मोड़ी!बड़ी फूफा की अम्माँ बन रई। बहुत जानत फूफा के लछन ।कबहुँ लम्पा देखा है ?तनिक पानी पड़ा नहीं कि लगा ऐंठने।"
"लंपा?"वही जंगली कांटा ना!,जो कपड़ो में घुस जाएं तो उल्टा -उल्टा चढ़ के चुभत है।"
"और का ।"
"हे राम!तो का फूफा को लम्पा कहिन चाह रई का? अपने मुद्दे पर आती हुई वह बोली।
"ऐसो है ,लुगाई हैं हम उनकी और एक मर्द को वा की लुगाई से जादा कोई नहीं जान सकत।सो तुम तो रहन दो समझीं !"
"बस तो, आप भी रहन दो।"
वह बिना नज़र मिलाये मुँहजोरी कर ,उठ के फुर्ती से रसोई में जा घुसी।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बढ़िया लघुकथा है आ. राहिला जी. आंचलिक भाषा का अच्छा प्रयोग किया है आपने. शीर्षक चयन शानदार है. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
एक मर्द को वा की लुगाई से जादा कोई नहीं जान सकत।-------------------सत्य बचन , बेहतरीन कथा , नारी विमर्श का विषय , बधाई राहिला जी .
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