२१२ २१२ २१२ २१२
फिर जगी आस तो चाह भी खिल उठी
मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी
दीप-लड़ियाँ चमकने लगीं, सुर सधे..
ये धरा क्या सजी, ज़िन्दग़ी खिल उठी
लौट आया शरद जान कर रात को
गुदगुदी-सी हुई, झुरझुरी खिल उठी
उनकी यादों पगी आँखें झुकती गयीं
किन्तु आँखो में उमगी नमी खिल उठी
है मुआ ढीठ भी.. बेतकल्लुफ़ पवन..
सोचती-सोचती ओढ़नी खिल उठी
चाहे आँखों लगी.. आग तो आग है..
है मगर प्यार की, हर घड़ी खिल उठी
फिर से रोचक लगी है कहानी मुझे
मुझमें किरदार की जीवनी खिल उठी
नौनिहालों की आँखों के सपने लिये
बाप इक जुट गया, दुपहरी खिल उठी
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-सौरभ
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, आपके अनुमोदन के लिए हार्दिक धन्यवाद
आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन । बेहतरीन प्रस्तुति हुई है । हार्दिक बधाई ।
एक पुराना क़िस्सा 'पवन'शब्द पर, जो पहले भी मंच पर साझा कर चुका हूँ फिर दुहराता हूँ, जिसका उल्लेख सौरभ भाई ने सिनेमामई संस्कृति के हवाले से किया है ।
हुआ यूँ कि मशहूर शाइर 'मजरूह'सुल्तानपुरी ने डॉ.विद्या फिल्म में एक गीत लिखा,जिसके बोल थे'पवन दिवानी,न माने उड़ाये घुंघटा'जो सुपर हिट हुआ,उसके कुछ दिन बाद एक पार्टी में मजरूह साहिब की मुलाक़ात मशहूर कवि पण्डित 'भरत व्यास' से हुई तो,व्यास जी ने मजरूह साहिब से कहा,'ये आपने गीत में क्या लिख दिया,'पवन दिवानी'?ये बात सुनकर मजरूह साहिब की पैशानी पर बल पड़ गए,वो बोले,क्या गलत लिख दिया ?व्यास जी ने कहा, 'आपको लिखना था "पवन दिवाना"क्योंकि 'पवन'शब्द पुल्लिंग है',ये सुनकर मजरूह साहिब शर्मिंदा हुए और कहा,'भाई मैंने उर्दू के लिहाज़ से पवन शब्द को 'हवा'की तरह स्त्रीलिंग ले लिया'मगर अब क्या हो सकता है,गीत तो चल निकला,फिर उसके बाद मजरूह साहिब ने 1966 में फिल्म 'शागिर्द'के लिए एक गीत लिखा'उड़के पवन के संग चलूँगी'ये गीत भी बहुत मक़बूल हुआ ।
स्पष्ट रूप से अपनी बातें रखने के लिए हार्दिक धन्यवाद भाई दिनेश जी. पवन को सिनेमाई संस्कृति ने स्त्रीलिंग के दर्ज़े में रखवा दिया है. पवन को पुल्लिंग संज्ञा में रख कर इस शेर को सुनें. शायद मज़ा आये.. .. ;-)))
आदरणीय अफ़रोज़ सहर भाई, आपकी उदार और भावमय प्रतिक्रिया से मन आनन्दित है. वस्तुतः इसी ढंग की टिप्पणी और प्रतिक्रियाएँ ओबीओ की परम्परा रही हैं. क्यों कि सार्थक टिप्पणियों से ही यह पता चलता है कि पाठक ने वस्तुतः रचना में क्या पढ़ा और कितना समझा. ऐसी समझ रचनाधर्मिता केलिए नितांत आवश्यक है. वर्ना, आदरणीय, आपकी ग़ज़ल या कोई रचना बहुत अच्छी लगी.. जैसे वाक्यों से न तो रचनाकार का भला होता है और न ही पाठक का.
इसी प्रस्तुति में देखिए, आखिरी शेर में मेरी लापरवाही ने गलती कर दी थी. अगर उस ओर आदरणीय समर भाई और आदरणीय नीलेश जी ने ध्यान न दिलाया होता तो मैं वाहवाही सुनता रहता और उक्त शेर के गलत मिसरे के साथ मेरी ग़ज़ल उन लोगों के पास चली जाती जिनकी ओर से ’ऑनलाइन तरही मुशायरा’ आसन्न है.
आपको ये जान कर अच्छा लगेगा, ऐसी विशद टिप्पणियों को हम ’ओबीओ टिप्पणी’ कहा करते हैं. यानी, हर शेर पर नीर-क्षीर करती विशद प्रतिक्रिया ! आदरणीय योगराज भाई व्यस्त होने के पूर्व अक्सर ऐसी टिप्पणियाँ किया करते थे. और हम सब भी टिप्पणियाँ देने के क्रम में उनका अनुकरण करते थे. आप विश्वास करें ऐसी टिप्पणियों से अन्य पाठकों और और रचनाकारों की विधागत, विधानगत तथा कथ्यगत समझ जितनी बढ़ती है वह विधान संबंधी कई-कई आलेखों को पढ़ जाने के बावज़ूद शायद बढ़े.
पुनः, आपकी भावमय और उत्साहवर्द्धन करती आत्मीय प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद. उचित होगा यदि आप अन्य शेरों पर भी अपनी प्रतिक्रिया दें.
शुभेच्छाएँ
//कोई भी दिक्कत नहीं है सर //
फिर आपके मूल प्रश्न का संदर्भ क्या था ? खुल कर बोलिए न ? ..
सुन री पवन ! पवन पुरवइया .. जैसा कोई गीत याद आ रहा है क्या ?
शुभेच्छाएँ
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