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फिर जगी आस तो चाह भी खिल उठी
मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी
दीप-लड़ियाँ चमकने लगीं, सुर सधे..
ये धरा क्या सजी, ज़िन्दग़ी खिल उठी
लौट आया शरद जान कर रात को
गुदगुदी-सी हुई, झुरझुरी खिल उठी
उनकी यादों पगी आँखें झुकती गयीं
किन्तु आँखो में उमगी नमी खिल उठी
है मुआ ढीठ भी.. बेतकल्लुफ़ पवन..
सोचती-सोचती ओढ़नी खिल उठी
चाहे आँखों लगी.. आग तो आग है..
है मगर प्यार की, हर घड़ी खिल उठी
फिर से रोचक लगी है कहानी मुझे
मुझमें किरदार की जीवनी खिल उठी
नौनिहालों की आँखों के सपने लिये
बाप इक जुट गया, दुपहरी खिल उठी
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-सौरभ
Comment
आदरणीय सौरभ जी आदाब आपकी इस रचना के यूँ तो सभी अश्आर अच्छे हैं । ले किन ख़ास तौर से मतला और मक्ता मुझे ज़ाती तौर पर बहुत भाए। मतला""फिर जगी आसतो चाह भी खिल उठी"
मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी"" का किरदार में अपने आपको पाता हूँ । क्यूँ की हताशा के भँवर में फंसे पात्र के मन में यदि कोई सकारात्मक भाव किसी भी स्रोत से आ जाए तो फिर नई उमंगें हिलोर लेने लगती हैं और उत्साह का नया संचार बिखरे हूए जीवन को फिर से समेटने में सहायक सिद्ध होता है । और जीवन में ऐसे हालातों से लगभग सभी को दो चार होना पड़ता है । निजी रूप से ऐसे हालात का मैंने बारहा तज्रिबा क्या है । यही कारण है की मतले का पात्र में ख़ुद को पा रहा हूँ। जारी,,,,,, सादर,,,
धन्यवाद आदरणीय सुशील सरना जी. आपने इस ग़ज़ल को समय दिया .. शुभ-शुभ
फिर जगी आस तो चाह भी खिल उठी
मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी
दीप-लड़ियाँ चमकने लगीं, सुर सधे..
ये धरा क्या सजी, ज़िन्दग़ी खिल उठी
वाह आदरणीय सौरभ सर वाह ... बहुत ही खूबसूरत,सार्थक और दिलकश अंदाज़ में पेश इस ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें सर।
भाई दिनेश जी, आप तो सही ही हैं. फिर दिक्कत क्या है ?
फिर जगी आस तो चाह भी खिल उठी
मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी
दीप-लड़ियाँ चमकने लगीं, सुर सधे..
ये धरा क्या सजी, ज़िन्दग़ी खिल उठी
वाह आदरणीय सौरभ सर वाह ... बहुत ही खूबसूरत,सार्थक और दिलकश अंदाज़ में पेश इस ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें सर।
पुलिंग के लिये सर।
//है मुआ ढीठ भी,... मुआ पुलिंग के लिए use हुआ है या स्त्रीलिंग ले लिए ? //
हम्म ..
आपको क्या लगता है, आदरणीय ? ये शब्द किसके लिए प्रयुक्त हुआ होगा ?
एक प्रश्न सहसा उठा। हालाँकि मेरी हिंदी भी कमज़ोर है।
है मुआ ढीठ भी,... मुआ पुलिंग के लिए use हुआ है या स्त्रीलिंग ले लिए ? सर
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