२१२ २१२ २१२ २१२
फिर जगी आस तो चाह भी खिल उठी
मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी
दीप-लड़ियाँ चमकने लगीं, सुर सधे..
ये धरा क्या सजी, ज़िन्दग़ी खिल उठी
लौट आया शरद जान कर रात को
गुदगुदी-सी हुई, झुरझुरी खिल उठी
उनकी यादों पगी आँखें झुकती गयीं
किन्तु आँखो में उमगी नमी खिल उठी
है मुआ ढीठ भी.. बेतकल्लुफ़ पवन..
सोचती-सोचती ओढ़नी खिल उठी
चाहे आँखों लगी.. आग तो आग है..
है मगर प्यार की, हर घड़ी खिल उठी
फिर से रोचक लगी है कहानी मुझे
मुझमें किरदार की जीवनी खिल उठी
नौनिहालों की आँखों के सपने लिये
बाप इक जुट गया, दुपहरी खिल उठी
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-सौरभ
Comment
भाई दिनेश जी, रचना पर समय और टिप्पणी देने के लिए हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ कुश क्षत्रप जी, आपकी टिप्पणी से मन प्रसन्न है. प्रस्तुति को समय देने के लिए हार्दिक धन्यवाद.
भाई, लखनवी ज़ुबां से आपका तात्पर्य मुआ शब्द से है. लेकिन उक्त शेर में इसके होने के कारण पर आप ध्यान दें तो और भी रोचक लगेगा, ऐसा मुझे लगता है.
शुभ-शुभ
अनन्य अनुज रवि प्रभाकर जी, प्रस्तुत हुई ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभारी हूँ. जिस शेर की आपने चर्चा की है, वह मुझे भी अत्यंत प्रिय है, रवि भाई.
शुभ-शुभ
आदरणीय नीरज जी, संभवतः आपकी कोई पहली टिप्पणी मेरी किसी रचना पर आयी है. आपने जिस सहजता से शब्दों के होने का कारण समझा और साझा किया है, वह आपकी भाषाई समझ की बानग़ी है. आप नये सदस्य हैं. लेकिन अपने होने के क्रम में इस मंच के वातावरण को समझने का प्रयास कर रहे होंगे. विश्वास है, आपका होना मंच के माहौल को समरस रखेगा. यह मंच परस्पर सीखने-सिखाने के उद्येश्य से रचनाओं और टिप्पणियों की अपेक्षा करता है. ग़ज़ल पर आपसे मिले अनुमोदन से मन प्रफुल्लित है.
हार्दिक धन्यवाद.
आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी, आपसे मिला उत्साहवर्द्धन मुदित कर रहा है. हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय अफ़रोज़ सहर साहब, इस प्रस्तुति में आपको जो कुछ अच्छा लगा उसकी चर्चा हो तो वह उचित होगा.
सादर
भाई बृजेश कुमार ब्रज जी, आपसे मिला अनुमोदन तोषदायी है. हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय भाई जी,
बहुत ही उम्दा ग़ज़ल कही । तकनीकी तौर पर तो कुछ कहने के काबिल नहीं हूं । परन्तु भाव बहुत ही बढ़िया है खासकर :
नौनिहालों की आँखों के सपने लिये
बाप इक जुट गया, दुपहरी खिल उठी
यह शे' अर एकदम से दिल में उतर गया। हार्दिक बधाई निवेदित है।
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