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फिर जगी आस तो चाह भी खिल उठी
मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी
दीप-लड़ियाँ चमकने लगीं, सुर सधे..
ये धरा क्या सजी, ज़िन्दग़ी खिल उठी
लौट आया शरद जान कर रात को
गुदगुदी-सी हुई, झुरझुरी खिल उठी
उनकी यादों पगी आँखें झुकती गयीं
किन्तु आँखो में उमगी नमी खिल उठी
है मुआ ढीठ भी.. बेतकल्लुफ़ पवन..
सोचती-सोचती ओढ़नी खिल उठी
चाहे आँखों लगी.. आग तो आग है..
है मगर प्यार की, हर घड़ी खिल उठी
फिर से रोचक लगी है कहानी मुझे
मुझमें किरदार की जीवनी खिल उठी
नौनिहालों की आँखों के सपने लिये
बाप इक जुट गया, दुपहरी खिल उठी
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-सौरभ
Comment
आदरणीय सौरभ जी, नमस्कार,
आपकी ग़ज़ल की सबसे खूबसूरत बात ये लगी कि इसमें आपने हिंदी का हिंदीपन बनाये रखते हुए भी ग़ज़ल की ग़ज़लियत बनाए रखी है. इसकी 'नगमगी' भी आकर्षक है. 'मुआ ढीठ' शायद भोजपुरी से आया है (मुअना > मुआ ) . रेख्ती पर पूर्वी का बहुत असर है.
शेरों में हर तरह के कथ्य को संकेतों के माध्यम से सहजता से सहेजना अच्छा लगा . दाद के साथ मुबारकबाद.
सादर
मेरी किसी रचना पर आपकी कोई पहली टिप्पणी है आदरणीय अफ़रोज़ सहर साहब. हार्दिक धन्यवाद.
इस ’सूंदर सुंदर’ रचना में ऐसा क्या कुछ मिल गया जिससे आप कुछ इस तरह से प्रभावित हो गये कि सुंंदरता ही दीर्घ-लघु हो गयी, आदरणीय ? जानने की प्रबल इच्छा हो रही है. .. :-))
शुभ-शुभ
आदरणीय सौरभ जी सुंदर रचना के लिए आपको सूंदर सुंदर बधाई,,सादर,,,,,
आदरणीय नीलेश नूर भाई, .. शुक्रिया .. शुक्रिया .. शुक्रिया ..
हाँ भाई, हमारी भोजपुरी में एक प्रसिद्ध कहावत है, कि, हड़बड़ी के बियाह में कनपट्टी पर सेनुर .. मतलब ज़ल्दबाज़ी का काम ऐसा ही होता है. मिसरे को सुधार दिया हूँ.
:-))
जय-जय
आदरणीय राज़ जी, इस उत्साहवर्द्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद
शुभ-शुभ
आदरणीय समर साहब, आपकी सुधी दृष्टि का सादर धन्यवाद. प्रस्तुति रोचक लगी इस हेतु मैं आभारी भी हूँ.
आपने जो प्रश्न उठाये हैं वे भाषाई हैं.
पगी का मतलब लबरेज़ होने से है. जो स्त्रीलिंग संज्ञा के साथ स्त्रीलिंग स्वरूप में है. यादों से लबरेज़ आँखें .. यह एक भावमय उक्ति है. मुझे नहीं लगता कि हिन्दी में इसका बहुवचन होता है. हिन्दी भाषा में पगीं का प्रयोग मैंने नहीं देखा है. कोई बताये तो मैं भी जानकार होऊँगा.
//'है मुआ ढीठ भी..बे तकल्लुफ़ पवन'
इस मिसरे में 'मुआ'शब्द लखनऊ की बैगमाती ज़बान का है, इसे इस्तेमाल करने की कोई ख़ास वजह ?//
जब आप उस जगह पहुँच ही गये तो फिर प्रश्न काहे का है भाई साहब ? .. :-))
// 'एक बाप जुट गया,दुपहरी खिल उठी'
इस मिसरे को अगर यूँ लिखें तो गेयता बढ़ जायेगी :-
'बाप इक जुट गया,दुपहरी खिल उठी //
ओऽऽऽह.. ! हुज़ूर, यह सिवा ध्यान में हुए भटकाव के और कुछ नहीं है..
आपसे कल लम्बीऽऽऽ बातें हुईं और ’अब कुछ कहना चाहिए’ सोचता हुआ मैं लिखने को उद्यत हो उठा. एक पटल पर आयोजित तरही के लिए मिसरा पास था ही, सो जुट गया.
मूलतः ये मिसरा ’इक पिता जुट गया, दुपहरी खिल उठी ..’ था. लेकिन मैं बाप और पिता को लेकर तनिक उधेड़बुन में था. क्योंकि भाई, बाप बाप होता है ! .. हा हा हा....
सो, ग़ज़ल पोस्ट करते समय मैंने बिना ध्यान दिये पिता को हटा कर बाप कर दिया. अब जो हुआ वो सामने है. आदरणीय, ठीक कर दिया हूँ.
आपका पुनः हार्दिक धन्यवाद
शुभ-शुभ
आदरणीय सलीम रज़ा भाई जी, आपकी भावमय टिप्पणी से मन प्रसन्न है. हाँ भाई, फिलहाल की व्यस्तता से पूरा प्रबन्धन तंत्र ही प्रभावित है. आप जैसे सुधीजनों का सहयोग अपेक्षित है.
शुभ-शुभ
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