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2122 2122 212
बाअदब सब हाथ जोड़े हैं खड़े
झाड़ते तकरीर बिगड़े मनचले।1

मामला लंबा चलेगा,सोचकर
कातिलों ने साक्ष्य ही निपटा दिए।2

फिर गवाहों को यहाँ ढूँढा गया,
जो जहाँ जैसे मिले,कटते रहे।3

थे विचाराधीन जो भी कैद में
देखिए अब तो बरी वे हो चले।4

फिर सिसकती आत्मा,कहने लगी---
'कब तलक मैं यूँ रहूँगी मुँह सिए?'5

आँख का अंधा हकीकत तोलता
है गुमां निर्दोष को फाँसी न दे।6

दे चुका अपनी गवाही आदमी
उज्र लाशों के कहीं मत्थे चढ़े।7

सिर खपाता है सिपाही बैठकर
थक गया है मामला कैसे बने।8

फिर फिजाओं ने हवा दी ---कर 'मनन',
आँसुओं के बोझ दिल पे हैं धरे।9
"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by Ajay Tiwari on October 21, 2017 at 9:18am

आदरणीय मनन कुमार जी,

अच्छी ग़ज़ल हुई है. शुभकामनायें.

सादर 

Comment by Mohammed Arif on October 21, 2017 at 7:49am
आदरणीय मनन कुमार जी आदाब, बहुत ही सुंदर ग़ज़ल । हर शे'र बेहतरीन । शे'र दर शे'र शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
Comment by Afroz 'sahr' on October 20, 2017 at 11:26pm
आदरणीय मनन जी बहुत बधाई आपको इस रचना के लिए,,,

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