जुलाहा ....
मैं
एक जुलाहा बन
साँसों के धागों से
सपनों को बुनता रहा
मगर
मेरी चादर
किसी के स्वप्न की
ओढ़नी न बन सकी
जीवन का कैनवास
अभिशप्त सा बीत गया
पथ की गर्द में
निज अस्तित्व
विलीन हुआ
श्वासों का सफर
महीन हुआ
मैं जुलाहा
फिर भी
सपनों की चादर
बुनता रहा
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विजय निकोर साहिब , प्रणाम ... सृजन के भावों को अपने कोमल शब्दों से मान देने का दिल से आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब , आदाब .. प्रस्तुति के अहसासों को आत्मीय सम्मान देने का दिल से आभार।
इतने कोमल एहसास ! वाह !
आनन्द आ गया, आदरणीय भाई सुशील जी।
आदरणीय मो.आरिफ साहिब, आदाब , सृजन आपकी मन मुदित करती प्रशंसा का दिल से आभारी है।
आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।
कल्पना भट्ट (रौनक़) जी सृजन के भावों की सराहना हेतु आपका तहे दिल से शुक्रिया।
वाह बहुत ही बढ़िया रचना हुई है ,आदरणीय सुशिल जी , हार्दिक बधाई |
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