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वो जितना गिरता है उतना ही कोई गिर जाये तो
उसकी ही भाषा में उसको सच कोई समझाये तो
सूरज से कहना, मत निकले या बदली में छिप जाये
जुगनू जल के अर्थ उजाले का सबको समझाये तो
मैं मानूँगा ईद, दीवाली, और मना लूँ होली भी
ग़लती करके यार मेरा इक दिन ख़ुद पे शरमाये तो
तेरी ख़ातिर ख़ामोशी की मैं तो क़समें खा लूँ, पर
कोई सियासी ओछी बातों से मुझको उकसाये तो
कहा तुम्हारा मैनें माना, जंग नहीं है हल, लेकिन
"पहले ये बतला दो उस ने छुप कर तीर चलाए तो
ॐ शाँति का मंत्र पाठ कर हमनें तो मन साध लिया
पाकी सेना, साथ मुज़ाहिद, सीमा पर आ जाये तो
सूरज तो निकलेगा तय है साथ लिये किरणें, कल भी
लेकिन आज़ादी की चाहत बदली बन छा जाये तो
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गिरिराज जी,
अच्छी ग़ज़ल हुई है. हार्दिक शुभकामनाएं.
आपकी ग़ज़ल बहरे मीर के हिसाब से ठीक है. लेकिन तरही में दी गई बहर बहरे मीर नहीं है. बहरे मीर मुतकारिब का एक आहंग है तरही में दी गई बहर मुतदारिक का. तरही में भी इसकी चर्चा हुई थी. नज्मुलगनी साहब के शब्द उधार लेते हुए कहूं तो ये दोनों आहंग हमशक्ल तो हैं मगर जुड़वां नहीं. नज्मुलगनी साहब की किताब बहरुल फ़साहत में इसका विवरण उपलब्ध है(पृष्ठ 303 - 305). किताब उर्दू काउन्सिल की बेबसाइट से डाउनलोड की जा सकती है:
http://urducouncil.nic.in/ebookNew/Bahr-ul-fasahat-Vol-1.
तरही में दी गई बह्र के हिसाब से ये मिसरे बहर में नहीं है :
'मैं मानूँगा ईद, दीवाली, और मना लूँ होली भी'
'कहा तुम्हारा मैनें माना, जंग नहीं है हल, लेकिन'
'ॐ शाँति का मंत्र पाठ कर हमनें तो मन साध लिया'
सादर
सूरज तो निकलेगा तय है साथ लिये किरणें, कल भी
लेकिन आज़ादी की चाहत बदली बन छा जाये तो -- आदरणीय गिरिराज भाई, ये पंक्तियाँ लाजवाब है | पूरी ग़ज़ल अच्छी हुई है | मुबारकबाद स्वीकार करें
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