२२ २२ २२ २
खुद ही काटे अपने पर
क्या धरती अब क्या अम्बर
कोई खिड़की न कोई दर
कितना उम्दा अपना घर
दुनिया तेरी धरती पर
अपनी हद बस ये गज भर
बंद कफ़स हो चाहे खुला
तुझको अब कैसा है डर
सारा आलम रख ले तू
मेरी अब परवाह न कर
मेरी अपनी मंजिल है
तेरी अपनी राह गुज़र
बेजा अब हैं तीर तेरे
तन पत्थर है मन पत्थर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद० विजय निकोर जी ,आपका तहे दिल से शुक्रिया |
आद० समर भाई जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लेखन सफल हो गया .दिल से बेहद शुक्रिया आपका |अजय तिवारी जी की इस्स्लाह मुझे भी सही लगी .
आद० सुरेन्द्र नाथ भैया ,आपको ग़ज़ल पसंद आई दिल से बहुत बहुत शुक्रिया
गज़ल बहुत ही अच्छी लगी। बधाई, आदरणीया राजेश जी।
आद० शेख उस्मानी जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका दिल से शुक्रिया
आद० डॉ० छोटे लाल जी आपका दिल से बहुत बहुत शुक्रिया
आपकी इस्स्लाह अच्छी है अजय जी
आद० अजय तिवारी जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
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