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जिधर देखो उधर मिहनत कशों की ऐसी हालत है-
ग़रीबों की जमा अत पर अमीरों की क़यादत है
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मुक़द्दर ले के आया है न जाने कैसी बस्ती में-
नज़र आती नहीं मुझको किसी के दिल में चाहत है
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कहीं दहशत कहीं अस्मत फरोशी है कहीं नफ़रत-
ज़माने में जिधर देखो क़ियामत ही क़ियामत है
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ग़रीबों के घरों में रहबरों देखो कभी जा कर-
वहां खुशियां नहीं हैं सिर्फ फ़ाक़ा और गुरबत है
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न जाने किस शनावर के मुक़द्दर में लिखा मोती-
समुन्दर में भला मालूम किस को कितनी दौलत है
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रज़ा जो मिल नहीं पाया न कर उसका कोई शिकवा-
ये क्या कम है तुझे शुहरत मिली उसकी बदौलत है
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"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जनाब डॉ छोटेलाल सिंह जी ,
ग़ज़ल में आपकी शिरक़त और हौसला अफ़जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।
जनाब तेजवीर सिंह जी ,
ग़ज़ल में आपकी शिरक़त और हौसला अफ़जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।
आदरणीय सलीम राजा रेवा जी बहुत बढ़िया ग़ज़ल है इस के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
हार्दिक बधाई आदरणीय सलीम राज़ा रेवा जी।आदाब। बहुत खूबसूरत गज़ल।
मुक़द्दर ले के आया है न जाने कैसी बस्ती में.
नज़र आती नहीं मुझको किसी के दिल में चाहत है.
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