212 212 212 212, 212 212 212 212
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जब तुम्हारी महब्बत में खो जाएंगे बिगड़ी क़िस्मत भी इक दिन संवर जाएगी /
लब तुम्हारी महब्बत में खो जाएंगे बिगड़ी क़िस्मत भी इक दिन संवर जाएगी //
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तुम मेरे साथ हो, चांदनी रात हो, होंट की बात हो, ज़ुल्फ़ की बात हो /
तब तुम्हारी महब्बत में खो जाएंगे बिगड़ी क़िस्मत भी इक दिन संवर जाएगी //
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हम नहीं चाँद तारे ये काली घटा गूंचा ओ गुल ये बुलबुल ये महकी फिज़ा /
सब तुम्हारी महब्बत में खो जाएंगे बिगड़ी क़िस्मत भी इक दिन संवर जाएगी //
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हम गुनहगार है, हम सियह कार हैं, फिर भी रहमो करम पे यकी है हमें /
रब तुम्हारी महब्बत में खो जाएंगे बिगड़ी क़िस्मत भी इक दिन संवर जाएगी //
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ऐ रज़ा दर - बदर हम भटकते रहे प्यार क्या , प्यार का इक निशाँ ना मिला /
अब तुम्हारी महब्बत में खो जाएंगे बिगड़ी क़िस्मत भी इक दिन संवर जाएगी //
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"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जनाब मुझे यक़ीन है आपकी कोशिश ज़रूर रंग लाएगी ,
नवल प्रयोग ,बढ़िया है !!
आली जनाब समर साहिब,
इस ग़ज़ल को सही करने के लिए आपकी मदद की ज़रुरत है।
आदरणीय Shyam Narain Verma ji' जी ,
आपकी नवाजिश के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।
आली जनाब तस्दीक़ साहिब ,
आपकी ग़ज़ल पे शिरकत और महब्बत के लिए शुक्रिया ,
जनाब यहाँ पर खोने का मतलब गुम हो जाना नहीं है ,
दीवानगी से है और जब हम किसी के प्यार में खो जाते हैं तो यक़ीनन हम अपनी मंज़िल पा लेते हैं।
जनाब सलीम साहिब , ग़ज़लकी अच्छी कोशिश हुई है , मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ
आपने जो रदीफ़ चुनी है उसका क़ाफ़िए के साथ तालमेल नहीं हो पा रहा
है , खो जाने पर क़िस्मत कैसे सँवरेगी ------देखिएगा
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