अजल की हो जाती है....
ज़िंदगी
साँसों के महीन रेशों से
गुंथी हुई
बिना सिरों वाली
एक रस्सी ही तो है
जिसकी उत्पत्ति भी अंधेरों से
और विलय भी अंधेरों में होता है
ज़िंदगी
लम्हों के पायदानों पर
आबगीनों सी ख़्वाहिशों को
छूने के लिए
सांस दर सांस
चढ़ती जाती है
मौसम
अपने ज़िस्म के
इक इक लिबास को उतारते
ज़िंदगी को
हकीकत के आफ़ताब की
तपिश से रूबरू करवाने की
हर मुमकिन कोशिश करते हैं
मगर अफ़सोस
ग़ुरूर में गुम ज़िंदगी
कायनात की हर ख़्वाहिश को
अपनी मुट्ठी में क़ैद करना चाहती है
नहीं जानती कि
ख़्वाहिश तो
अजल की डिब्बी में क़ैद है
वो कहाँ किसी के हाथों की ज़द में आती है
हर अलससुब्ह
नयी ख़्वाहिश ज़ह्न में अंगड़ाई लेती है
फिर रात की तारीकियों में
अजल की हो जाती है
ज़िंदगी
फिर अपनी नाकामी पे
उदास हो जाती है
थक-हार के
आख़िर
साथ ख्वाहिशों के
वो भी
अजल की हो जाती है
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीया Rakshita Singh जी सृजन को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब, आपका सन्देश मिल गया है। संदेह का निवारण हुआ। आपका तहे दिल से शुक्रिया। असुविधा के लिए क्षमा।
आदरणीय तस्दीक अहमद साहिब, आदाब ... सृजन को आत्मीय स्नेह देने का दिल से आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब, शुक्रिया आपकी दुआओं का। सर मैंने आपको एक सन्देश भेजा है। प्लीज़ देख लें।
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब , सृजन को अपनी आत्मीय प्रशंसा से मान देने का हार्दिक आभार। इंगित त्रुटियों को दर्शाने का मैं हार्दिक आभारी भी हूँ शरमसार भी हूँ। कोशिश करता हूँ फिर भी .... . इस हेतु आपका तहे दिल से शुक्रिया। आप जैसे गुणीजनों से ही हम अपने भावों को सही राह दे पा रहे हैं। मैं इसे अभी एडिट करता हूँ। थैंक्स सर।
आदरणीय मो.आरिफ साहिब , आदाब , सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।
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