बंद किताब ...
ठहरो न !
थोड़ी देर तो रुक जाओ
अभी तो रात की स्याही बाकी है
सहर की दस्तक से घबराते हो
प्यार करते हो
और शरमाते हो
कभी नारी मन के
सागर में उतर के देखो
न जाने कितने गोहर
सीपों में
किसी के लम्स के मुंतज़िर हैं
देहाकर्षण के परे भी
एक आकर्षण होता है
जहां भौतिक सुख के बाद का
एक दर्पण होता है
नशवरता से परे
अनंत में समाहित
अमर समर्पण होता है
पर रहने दो
तुम ये बातें न समझ पाओगे
इक देह बन के आओगे
देह में सिमट जाओगे
आश्वासनों में छुपा
इक दर्द दे जाओगे
अपनत्व के शब्दों में गुंथी
इक बंद किताब दे जाओगे
और मैं
इंतज़ार के अंतिम "वरक़" तक
मर मर के जीती रहूंगी
साँसों के अंतिम छोर तक
तुम में
बैठकर
तुम्हें पढूंगी
तुम्हारे शब्दों में
स्वयं को आत्मसात कर
इक शब्द बन जाऊँगी
सच
कितना अच्छा होगा
तुम्हारे आश्वासनों के साथ बैठी
मैं भी
इक
बंद किताब हो जाऊंगी
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विजय निकोर साहिब , सादर प्रणाम ... सृजन के भावों को आत्मीय भावों से अलंकृत का हार्दिक आभार।
//तुम में
बैठकर
तुम्हें पढूंगी
तुम्हारे शब्दों में
स्वयं को आत्मसात कर
इक शब्द बन जाऊँगी //
वाह ! अति कोमल भाव। इस सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई, भाई सुशील जी।
आदरणीय मो.आरिफ साहिब, आदाब .. सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया एवं सुझावों की हार्दिक आभारी है। भविष्य में इनकी पुरावृति न हो , इसका ध्यान रखने का प्रयास करूंगा। वैसे सर हिंदी में वर्ण के नीचे नुक़्ते (.) का चलन मेरी नज़र में नहीं आया हाँ उर्दू लिपि में ज़रूर है। अब चूंकि मैंने ये प्रस्तुति हिंदी में उर्दू के शब्दों को प्रयोग करते हुए लिखी है इसलिए आपको शायद वर्तनी दोष लगा हो। बहरहाल कोशिश करूंगा कि कम से कम उर्दू शब्दों का सही प्रयोग करूँ। इस गहन समीक्षात्मक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार।
आदरणीय सलीम साहिब सृजन को आत्मीय मान से अलंकृत करने का दिल से आभार।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह जी सृजन के गहन भावों को सहमति देती आत्मीय प्रशंसा से सृजन सार्थक हुआ। हार्दिक आभार।
आदरणीय तस्दीक़ अहमद साहिब, आदाब ... सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।
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