लघुकथा -– आँखें -
"सुबोध, यह क्या हिमाक़त है। मुझे पता चला है कि तुमने एक अंधी लड़की से शादी करने का फ़ैसला किया है"?
"जी पिताजी, आपने बिलकुल सही सुना है"।
"तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया। तुम एक अरबपति व्यापारी की इकलौती संतान हो। साथ ही जाने माने डाक्टर भी हो। तुम्हारे लिये कितने बड़े घरानों से रिश्ते आ रहे हैं, कुछ पता है"?
"मगर मेरा फ़ैसला अटल है"।
"ऐसी क्या वज़ह है जो तुम परिवार के मान सम्मान और प्रतिष्ठा को दॉव पर लगा कर उस मामूली से परिवार की लड़की से शादी पर आमादा हो"?
"मेरे विचार से इस शादी से आपके मान सम्मान में और चार चाँद लग जायेंगे। समाज में आपका रुतबा और बढ़ जायेगा"।
"मगर तुमने अभी तक मुझे इस शादी के निर्णय का कारण नहीं बताया"?
"पिताजी, जब मैं डाक्टरी पढ़ रहा था, यह लड़की भी मेरे साथ डाक्टरी कर रही थी।लैबोरेटरी में मेरी लापरवाही से उसके चेहरे पर तेज़ाब गिर गया और उसकी दोनों आँखें खराब हो गयीं। उस लड़की ने कभी किसी से मेरा नाम नहीं लिया| जबकि उसका पूरा कैरियर बरबाद होगया”।
“फिर तुम इतने परेशान किसलिये हो”?
“उस घटना के बाद से उसकी खूबसूरत आँखें मेरा पीछा नहीं छोड़ रहीं।दिन रात,सोते जागते, हर वक्त मुझे यही लगता है जैसे वे आँखें मेरा पीछा कर रही हैं और मुझे धिक्कार रही हैं"।
"बस, इतनी सी बात है, इस मामले को तो एक मोटी रक़म दे कर भी निबटाया जा सकता है"।
"पिताजी, इंसान की हर भूल की कीमत पैसे से नहीं चुकाई जा सकती"।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
३ दिसंबर, अंतराष्ट्रीय विकलांग दिवस के लिए इससे अच्छे लाघकथा नहीं हो सकती थी. मेरी समझ के अनुसार! बधाई आदरणीय !
मुहतरम जनाब तेजवीर साहिब ,अच्छी लघुकथा हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
हार्दिक आभार आदरणीय डॉ पवन मिश्रा जी।
हार्दिक आभार आदरणीय समर क़बीर साहब जी।आदाब।
हार्दिक आभार आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी।
हार्दिक आभार आदरणीय शेख उस्मानी जी।
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