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वक्त के साथ खो गयी शायद ।
तेरे होठों की वो हँसी शायद ।।
बन रहे लोग कत्ल के मुजरिम।
कुछ तो फैली है भुखमरी शायद ।।
मां का आँचल वो छोड़ आया है ।
एक रोटी कहीं दिखी शायद ।।
है बुढापे में इंतजार उसे ।
हैं उमीदें बची खुची शायद ।।
लोग मसरूफ़ अब यहां तक हैं ।
हो गयी बन्द बन्दगी शायद ।।
खूब मतलब परस्त है देखो ।
रंग बदला है आदमी शायद ।।
वक्त के साथ खो गयी शायद ।
तेरे होठों की वो हँसी शायद ।।
देखिये आंख में जरा उनकी।
है मुकम्मल अभी नमी शायद ।।
मुद्दतों बाद रंग चेहरे पर ।
इक मुलाकात हो गई शायद ।।
जिंदगी मैं गुजार भी लेता ।
हो गयी आपकी कमी शायद ।।
नेकियाँ बेअसर हुईं सारी ।
हसरतें थीं बहुत बड़ी शायद ।।
पूछ कर हाल फिर मेरे घर का ।
कर गए आप दिल्लगी शायद ।।
आपकी हरकतें बताती हैं ।
अक्ल से भी है दुश्मनी शायद ।।
जख्म पर ज़ख्म खा रहे हो तुम।
आंख अब भी नहीं खुली शायद ।।
नवीन मणि त्रिपाठी मौलिक अप्रकाशित
Comment
इस ग़ज़ल को ग़ज़ल की तरह लिखिये, ताकि कुछ समझने और कहने में आसानी हो ।
बहुत खूब हार्दिक बधाई ।
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