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दामन को तीरगी से बचाते चले गए
ईमाँ की रोशनी में नहाते चले गए
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हम दर-बदर की ठोकरे खाते चले गए
फिर भी तराने प्यार के गाते चले गए
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कोशिश तो की भंवर ने डुबोने की बारहा
हम कश्ती-ए-हयात बचाते चले गए
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रुसवाईयों के डर से कभी बज़्में नाज़ में
हंस-हंस के दिल का दर्द छुपाते चले गए
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अपना रहा ख़्याल न कुछ होश ही रहा
आँखों में उनकी हम तो समाते चले गए
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करता है जो सभी के मुक़द्दर का फ़ैसला
उसकी रज़ा की शम्अ जलाते चले गए
Comment
आद0 सलीम जी सादर अभिवादन, बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल कही आपने, शैर दर शैर बधाई देता हूँ। सादर
बहुत खूब । हार्दिक बधाई ।
काली प्रसाद जी,
ग़ज़ल को सराहने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद,
आरिफ साहब, महब्बत सलामत रहे,
जनाब अफरोज साहब,
आपके ख़ुलूश और महब्बत के लिए शुक्रिया,
श्याम नारायण जी ग़ज़ल पर आपकी सराहना के लिए धन्यवाद,
जनाब तस्दीक़ अहमद साहब,
आपकी ग़ज़ल पर शिर्कत और आपकी महब्बत के लिए शुक्रिया,
आ सलीम रज़ा साहिब आदाब , सभी अशआर बहुत सुन्दर है बधाई स्वीकार करें
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