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नवगीत- लुटने को है लाज द्रौपदी चिल्लाती है

अब तो आओ कृष्ण धरा ये थर्राती है।
लुटने को है लाज द्रौपदी चिल्लाती है।।

द्युत क्रीड़ा में व्यस्त युधिष्ठिर खोया है,
अर्जुन का गांडीव अभी तक सोया है।
दुर्योधन निर्द्वन्द हुआ है फिर देखो,
दुःशासन को शर्म तनिक ना आती है।।
लुटने को है लाज द्रौपदी चिल्लाती है।।

धधक रही मानवता की धू धू होली,
विचरण करती गिद्धों की वहशी टोली।
नारी का सम्मान नहीं अब आँखों में,
भीष्म मौन फिर गांधारी सकुचाती है।।
लुटने को है लाज द्रौपदी चिल्लाती है।।

सोने के मृग गली गली अब फिरते हैं,
और जटायू बेबस मर मर गिरते हैं।
लक्ष्मण रेखा लांघ रही देखो सीता,
संत भेष में फिर से रावण घाती है।।
लुटने को है लाज द्रौपदी चिल्लाती है,
अब तो आओ कृष्ण धरा ये थर्राती है।।

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by डॉ पवन मिश्र on December 12, 2017 at 6:33pm

जनाब मोहम्मद आरिफ जी इस उत्साहवर्धन के लिये हृदय से आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 12, 2017 at 5:49pm

आद० पवन मिश्र जी ,बहुत ही सुंदर गीत हुआ जिसके लिए बहुत बहुत बधाई स्वीकारें .ये गीत है पवन जी नवगीत की श्रेणी में ये नहीं आएगा सादर |

Comment by Mohammed Arif on December 12, 2017 at 4:23pm

आदरणीय पवन कुमार जी आदाब,

                            बहुत ही प्रभावशाली रचना हुई है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

Comment by डॉ पवन मिश्र on December 12, 2017 at 3:48pm

आदरणीय समर साहब, आपके शब्द मेरे लिये किसी देव वाणी से कम नहीं। भाव आप तक पहुंचे लेखन सफल हुआ,,,बहुत बहुत आभार आपका

Comment by Samar kabeer on December 12, 2017 at 3:28pm

जनाब डॉ.पवन मिश्र जी आदाब,बहुत सुंदर और भवपूर्ण नवगीत लिखा आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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