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जगी थीं जो भी हसरतें, सुला गए ।
निशानियाँ वो प्यार की मिटा गए।।
उन्हें था तीरगी से प्यार क्या बहुत।
चिराग उमीद तक का जो बुझा गए ।।
पता चला न, सर्द कब हुई हवा।
ठिठुर ठिठुर के रात हम बिता गए ।।
लिखा हुआ था जो मेरे नसीब में ।
मुक़द्दर आप अदू का वो बना गए।।
नज़र पड़ी न आसुओं पे आपकी
जो मुस्कुरा के मेरा दिल दुखा गये ।।
न जाने कहकशॉ से टूटकर कई ।
सितारे क्यों ज़मीं पे आज आ गए ।।
गुलों के हाल पे कली जो थी दुखी ।
उसी की लोग कीमतें लगा गए ।
--नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ0 मो आरिफ साहब विशेष आभार
आ0 विजय निकोरे साहब शुक्रिया
आ0 कबीर सर सादर नमन
आदरणीय नवीनमणि त्रिपाठी जी आदाब,
बहुत ही अच्छे अश'आर । हर शे'र बढ़िया । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की इस्लाह का संज्ञान लें ।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'चिराग़ उमीद तक का जो बुझा गए'
इस मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर है 'तक का',इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-
'चिराग़ जो उमीद का बुझा गए'
4थे शैर का मफ़हूम साफ़ नहीं है ।
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