2122 2122 212
फिर कोई सिक्का उछाला जा रहा ।
रोज मुझको आजमाया जा रहा ।।
मानिये सच बात मेरी आप भी ।
देश को बुद्धू बनाया जा रहा ।।
कौन कहता है यहां सब ठीक है ।
हर गधा सर पे बिठाया जा रहा ।।
हो रहे मतरूफ़ सारे हक यहां ।
राज अंग्रेजों का लाया जा रहा ।।
हर जगह रिश्वत है जिंदा आज भी ।
खूब बन्दर को नचाया जा रहा ।।
कुछ हिफाज़त कर सकें तो कीजिये ।
बेसबब ही जुर्म ढाया जा रहा ।।
इंतकामी हौसलों के साथ अब ।
मुल्क को नस्तर चुभाया जा रहा ।।
लूट का जिन पर लगा इल्जाम था ।
फिर इलक्शन में जिताया जा रहा ।।
कल तलक नजरों में था वो इक खुदा ।
आज नजरों से उतारा जा रहा ।।
क्या लियाकत आदमी की है यहां ।
आइना खुलकर दिखाया जा रहा ।।
- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आद0 नवीन जी सादर अभिवादन। बेहतरीन ग़ज़ल कही आपने, शैर दर शैर मुबारकबाद कुबूल करें। सादर
आदरणीय , नवीन जी
आधुनिक युग की वास्तविकता को आपने बहुत ही सुन्दर पंक्तियों में पिरोया..बधाई स्वीकार करें।
आ0 कबीर सर सादर प्रणाम । अवश्य ठीक करता हूँ ।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
छटे शैर के सानी मिसरे में 'जुर्म' की जगह "ज़ुल्म" कर लें ।
सातवें शैर के सानी मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर है,'मुल्क को',इसे "देश को" कर सकते हैं,इसी मिसरे में 'नस्तर' को "निश्तर" कर लें ।
'लूट का जिन पर लगा इल्ज़ाम था'
सानी मिसरे की मुनासिबत से इस मिसरे को इस तरह करना मुनासिब होगा:-
'लूट का इल्ज़ाम था जिन पर उन्हें'
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