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इस तरह मुहब्बत में दिल लुटा के चलते हो ।
हर कली की खुशबू पर बेसबब मचलते हो ।।
मैंकदा है वो चहरा रिन्द भी नशे में हैं ।
बेहिसाब पीकर तुम रात भर सँभलते हो ।।
टूट कर मैं बिखरा हूँ अपने आशियाने में ।
क्या गिला है अब मुझसे रंग क्यूँ बदलते हो ।।
दिल चुरा लिया तुमने हुस्न की नुमाइस में ।
बेनकाब होकर क्यूँ घर से तुम निकलते हो ।।
तिश्नगी जलाती है जब भी तुमको देखा है ।
तुम बड़े सलीके से रूह को भी छलते हो ।।
मिल गया तुम्हारा खत पढ़ लिया फ़साना भी ।
बेरुखी का आलम है आग में ही ढलते हो ।।
कुछ ग़ज़ल का जादू है कुछ अदा भी कमसिन है ।
इश्क़ में सवँरते हो आशिकी में पलते हो ।।
आसुओं का रिश्ता है अब किसी मुहब्बत से ।
जानकर हकीकत सब दिल से क्यों न मिलते हो ।
इस तरह जवानी पर नाज़ क्या करोगे तुम ।
तुमतो उसकी सूरत पे मोम सा पिघलते हो ।।
तुम छुपा नहीं पाए दर्द वो जुदाई का ।
आंख सब बताती है किस तरह टहलते हो ।।
,---नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
जी सर उसे भी देखता हूँ । सादर आभार ।
जनाब नवीन जी क़वाफ़ी अब ठीक हैं ।
5वें शैर में शुतरगुर्बा दोष है,ऊला में 'तुझको' और सानी में ' 'तुम' ।
छटे के सानी में ऐब-ए-तनाफ़ुर 'आलम में' ।
आ0 काली पद प्रसाद मण्डल साहब ग़ज़ल में परिवर्तन किया है एक बार पुनः देखने का कष्ट करें ।
आ0 कबीर सर सादर नमन - ग़ज़ल की काफिया के साथ साथ कुछ अन्य परिवर्तन कर एडिट कर दिया है । अब एक बार पुनः अवलोकन करने की कृपा करें । सादर ।
आदरणीय नवीन मणि जी , ग़ज़ल का प्रयास बहुत अच्छा हुआ है | आ समीर कबीर साहिब की बात से मैं सहमत हूँ | पांचवां शेर में ऐब ए शुतुर्गुर्बा दोष भी प्रतीत हो रहा | क्रपया देख ले | सादर नमन
आ0 कबीर सर नमन इससे बचने के लिए मैंने मतले के शेर में सस्ते किया था । मतले के शेर में कुछ परिवर्तन कर दिया जाए तो क्या काफिया मान्य हो जाएंगे ।
सुन्दर भावों से सजी इस गज़ल के लिए आपको बहुत बधाई। |
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,पूरी ग़ज़ल में क़वाफ़ी सही नहीं हैं,'चलते' के साथ 'जलते',सँभलते',,'पिघलते' क़वाफ़ी आएंगे क्योंकि आपका क़ाफ़िया 'ते' है और इसका हर्फ़-ए-रवी है 'ल',हर्फ़-ए- रवी कहते हैं,क़ाफिये के पहले बार बार आने वाला हर्फ़(अक्षर)ग़ौर कीजियेगा ।
हार्दिक बधाई
बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आपने आदरणीय| हार्दिक बधाई|
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