मुतदारिक सालिम मुसम्मन बहर
212 212 212 212
आँख आँसू बहाती रही रात भर
दर्द का गीत गाती रही रात भर
आसमां के तले भाव जलते रहे
बेबसी खिलखिलाती रही रात भर
बाम पे चाँदनी थरथराने लगी
हर ख़ुशी चोट खाती रही रात भर
रूह के ज़ख्म भी आह भरने लगे
आरजू छटपटाती रही रात भर
प्यार की राह में लड़खड़ाये कदम
आशकी कसमसाती रही रात भर
आह भरते हुये राह तकते रहे
राह भी मुँह चिढ़ाती रही रात भर
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
आद0 ब्रिजेश जी सादर अभिवादन। मतला बदल दीजिये, शेष ग़ज़ल हो जाएगी। बहुत बहुत बधाई इस ग़ज़ल पर।सादर
आ ब्रजेश जी अच्छा प्रयास है , बधाई आपको ,
आदर्णीय बृजेश कुमार ब्रज साहब खूबसूरत ग़ज़ल हुई है। बधाई स्वीकारें। कभी कभी कोई धुन या मिसरा कभी सुना तो दिमाग़ में रहता है और हम जाने अनजाने ग़ज़ल कह देते हैं । उसमें वो मिसरा आ जाता है. आप मिसरा बदल दीजिए। तरही ग़ज़ल में भी हम किसी के मिसरे पर ही ग़ज़ल कहते हैं फर्क इतना है कि हम बाक़ायदा लिख देते हैं कि मिसरा किस शायर का है।
आदरणीय समर कबीर सादर नमस्कार..जानबूझ के नहीं अनजाने में ये इत्तफ़ाक़ हुआ है..मैंने कभी ये ग़ज़ल नहीं सुनी थी लेकिन आपकी और आदरणीय सलीम जी की टिप्पड़ी से पता चला तब नेट पे सर्च किया तो पाया फ़िल्म गमन में ये रचना है..इसके आलावा फैज़ साहब की एक ग़ज़ल भी इसी मतले पे।अब में थोड़ा संशय में हूँ क्या ऐसा करना उचित है??
माफ़ कीजिये आदरणीय सलीम जी..मुझे बिलकुल भी जानकारी नहीं थी..आपकी टिप्पड़ी पढ़ने के बाद मैंने अभी नेट पे सर्च किया तब पता चला..दरअसल मैंने एक ग़ज़ल लिखी थी "आपकी याद आने लगी शाम से" उसी समय ये मिसरा भी दिमाग में कौंधा तो इसे भी लिख दिया..हालाँकि ये सिर्फ इत्तफ़ाक़ है..मैं कुछ बदलाव करने की कोशिश करता हूँ या इसे पटल से हटा लेता हूँ जैसा आप बड़े निर्देश दें..सादर
हार्दिक आभार आदरणीय मोहित जी..सादर
बहुत बहुत आभार आदरणीय अजय कुमार जी..सादर
जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज' साहिब आदाब,ग़ज़ल अच्छी हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
"आपकी याद आती रही रात भर
चश्म-ए-नम मुस्कुराती रही रात भर'
इस फ़िल्मी मतले का ऊला मिसरा क्या आपने जान बूझ कर लिया है?
'कश्तियां साहिलों से बिछड़ते हुये
दर्द का गीत गाती रही रात भर'
इस शैर के ऊला मिसरे में 'कश्तियां' शब्द बहुवचन है और रदीफ़ का शब्द 'रही' एक वचन में,यानी शुतरगुर्बा दोष,देखियेगा।
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