बह्र- फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
ग़ज़ब की है शोखी और अठखेलियाँ हैं।
समन्दर की लहरों में क्या मस्तियाँ हैं।
महल से भी बढ़कर हैं घर अपने अच्छे,
भले घास की फूस की आशियाँ हैं।
मुकम्मल भला कौन है इस जहाँ में,
सभी में यहाँ कुछ न कुछ खामियाँ हैं।
ज़िहादी नहीं हैं ये आतंकवादी,
जिन्होंने उजाड़ी कई बस्तियाँ हैं।
ये नफरत अदावत ये खुरपेंच झगड़े,
सियासत में इन सबकी जड़ कुर्सियाँ हैं।
समन्दर के जुल्मों सितम से हैं टूटी,
किनारे पड़ी जो कई कश्तियाँ हैं।
ये कैसी तरक्की दिवाली के दिन भी,
अँधेरे में डूबी हुई झुग्गियाँ हैं।
मौलिक एवं अप्रकाशित
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Comment
आदर्णीय अजय तिवारी जी आपके द्वारा दिये गये सुझाव के अनुसार मैं शेर में तब्दीली करदूँगा। बहुत बहुत आभार।
आदर्णीय मोहम्मद आरिफ साहब ग़ज़ल पसन्दगी के लिये शुक्रिया
आदर्णीय श्री अफरोज साहब रदीफ ग़ज़ल की "हैं" होने से आपके सुझाये अनुसार आशियाँ है नहीं आयेगा। आपने टिप्पणी की और सुझाव दिया इसके लिये बहुत बहुत शुक्रिया।
आदरणीय राम अवध जी, अच्छी ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई.
'भले घास की फूस की आशियाँ हैं' 'आशियाँ' स्त्रीलिंग नहीं है.
सादर
महल से भी बढ़कर हैं घर अपने अच्छे,
भले घास की फूस की आशियाँ हैं। वाह! वाह! वाह! बहुत ही बढ़िया शे'र है ।
शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए आदरणीय अवध बिहारी जी । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।
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