बह्र- फऊलुन फऊलुन फऊलुन फउल
मग़रमच्छ घड़ियाल को जाल में।
फँसा कर रहेंगे वो हरहाल में।
खुदा जाने होंगी वो किस हाल में।
मेरी बेटियाँ अपनी ससुराल में।
निकालो नहीं बाल की खाल को,
नहीं कुछ रखा बाल की खाल में।
नतीजा सिफर का सिफर ही रहा,
मिला कुछ नहीं जाँच पड़ताल में।
मिनिस्टर का फरमान जारी हुआ,
गधे बाँधे जायेंगे घुड़साल में।
हुई हेकड़ी सारी गुम उसकी तब,
तमाचा पड़ा वक्त का गाल में।
कभी जिसमें पानी की बूँदें न थीं।
कमल खिल रहे हैं उसी ताल में।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी ग़ज़ल सराहना के लिये बहुत बहुत शुक्रिया
अच्छी गजल हार्दिक बधाई ।
आदरणीय सुरेन्द्रनाथ सिंह जी आप सही फरमारहे हैं.शेर में परिवर्तन कर लूँगा। सादर आभार टिप्पणी क लिये।
आदर्णीया कालीपद प्रसाद जी अमूल्य टिप्पणी के लिये सादर आभार।
आदर्णीय समर कबीर साहब आपके सुझाव के अनुसार संशोधन कर लूँगा। अमूल्य सुझाव के लिये बहुत बहुत शुक्रिया।
आदरणीय आरिफ साहब ग़ज़ल पसन्द आई। आपने हौसला बढ़ाया। इसके लिये शुक्रिया।
आद0 राम अवध जी सादर अभिवादन।बढ़िया ग़ज़ल हुई है, बधाई ।
गाल में' उचित प्रतीत नहीं होता सादर
आ राम अवध जी , गज़की प्रयास अच्छी हुई है |बधाई कुबूल करें
जनाब राम अवध जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'निकालो नहीं बाल की खाल को'
इस मिसरे को अगर यूँ कहें तो उचित होगा:-
'निकालो नहीं बाल की खाल तुम'
आदरणीय राम अवध जी आदाब,
बहुत ही अच्छी ग़ज़ल । हर शे'र बढ़िया । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
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