बह्र- फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
ग़ज़ब की है शोखी और अठखेलियाँ हैं।
समन्दर की लहरों में क्या मस्तियाँ हैं।
महल से भी बढ़कर हैं घर अपने अच्छे,
भले घास की फूस की आशियाँ हैं।
मुकम्मल भला कौन है इस जहाँ में,
सभी में यहाँ कुछ न कुछ खामियाँ हैं।
ज़िहादी नहीं हैं ये आतंकवादी,
जिन्होंने उजाड़ी कई बस्तियाँ हैं।
ये नफरत अदावत ये खुरपेंच झगड़े,
सियासत में इन सबकी जड़ कुर्सियाँ हैं।
समन्दर के जुल्मों सितम से हैं टूटी,
किनारे पड़ी जो कई कश्तियाँ हैं।
ये कैसी तरक्की दिवाली के दिन भी,
अँधेरे में डूबी हुई झुग्गियाँ हैं।
मौलिक एवं अप्रकाशित
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Comment
आदर्णीय लक्ष्मण धामी मुसाफिर जी ग़ज़ल सराहना के लिये सादर धन्यवाद।
आ. भाई रामअवध जी, हार्दिक बधाई।
आदर्णीय बृजेश कुमार ब्रज जी सादर आभार
बहुत ही सुन्दर ख्याल है आदरणीय..सादर
आदर्णीय सुरेन्द्र नाथ सिंह जी ग़ज़ल आपको पसन्द आई इसके लिये सादर धन्यवाद
आद0 राभ अवध जी अच्छी ग़ज़ल कही आपने,बहुत बहुत बधाई।
आदर्णीय समर कबीर सर जी आपका बहुत बहुत आभार
आदर णीय मोहित मिश्रा जी बहुत बहुत शुक्रिया
जनाब राम अवध जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,त्रुटियों के बारे में गुणीजन बता चुके,बधाई स्वीकार करें ।
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