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कफ़स को तोड़ बहारों में आज ढल तो सही ।।
तू इस नकाब से बाहर कभी निकल तो सही ।।
तमाम उम्र गुजारी है इश्क में हमने ।
करेंगे आप हमें याद एक पल तो सही ।।
सियाह रात में आये वो चाँद भी कैसे ।
अदब के साथ ये लहज़ा ज़रा बदल तो सही ।।
बड़े लिहाज़ से पूंछा है तिश्नगी उसने ।
आना ए हुस्न पे इतरा के कुछ उबल तो सही ।।
झुकी नज़र में अदाओं पे मुस्कुरा देना ।
ऐ दिल सनम की शरारत पे कुछ मचल तो सही ।।
जमी है वर्फ़ ज़माने की खूब रिश्तों पर ।
बची हो आग तो हंसकर जरा पिघल तो सही ।।
तेरे लिए वो किताबें ग़ज़ल की लिखता है ।
असर हो दिल पे तो अपनी सुना ग़ज़ल तो सही ।।
सफर अधूरा है मंजिल अभी है दूर बहुत ।
तू थोड़ी दूर तलक मेरे साथ चल तो सही ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
अब ठीक है ।
आ0 कबीर सर शत शत नमन के साथ सादर आभार सुधार कर दिया ।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
4थे शैर का सानी मिसरा यूँ कर लें :-
'अना-ए-हुस्न पे इतरा के कुछ उबल तो सही'
5वें शैर के ऊला में 'से' की जगह 'की' और 'में' की जगह 'पे' कर लें ।
छटे शैर में क़ाफ़िया दोष है,सही शब्द है "द्ख्ल"
7वें शैर के ऊला ने 'से' की जगह "की" कर लें ।
आख़री शैर का सानी मिसरा बह्र में नहीं है इसे यूँ कर लें :-
'तू थोड़ी दूर तलक मेरे साथ चल तो सही'
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