"ज़्यादा मत उड़ो, ज़मीन पे रहो; घर-गृहस्थी पे ध्यान दो, समझे!"
"ऐसा क्यों कह रहे हैं बाबूजी, मुझसे क्या ग़लती हुई?"
"ग़लती नहीं, ग़लतियां कर रहे हो मियां!"
" समझा नहीं! क्या मेरी साहित्यिक यात्राओं से आपको कोई कष्ट?"
" मुझे ही नहीं, हम सब को तक़लीफ है! सुना है कि कल फिर तुम दिल्ली से क़िताबें सूटकेश में भर कर लाये हो! पगलिया गये हो क्या?"
"बाबूजी, ये वे पुस्तकें हैं जिनमें मेरी रचनाएं प्रकाशित हुई हैं या जिन्हें पढ़कर मुझे अपना लेखन सुधारना है!"
"अब बहू ही तुम्हें सुधारेगी बेटा! लिखना बंद कर! पत्नी से रिश्ते सुधार ले! साहित्य के सम्मेलनों से कुछ नहीं मिलने वाला, फक्कड़पन के सिवाय!"
"बहुत कुछ मिलता है बाबूजी! रिश्तों का बसंत मिलता है, देश की ज़मीन, ज़मीनी हक़ीक़तों और भविष्य के रिश्ते समझ में आते हैं! लेखकों से रिश्ते मज़बूत होते हैं!"
"बेटा, मेरे बाल ऐसे ही नहीं पके हैं! अगर साहित्य से रिश्तों के बसंत आते, तो देश और दुनिया के ऐसे हालात न होते!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
(22-01-2018-बसंत पंचमी)
Comment
मेरी इस ब्लोग पोस्ट पर समय देकर अनुमोदन और हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब तेजवीर सिंह साहिब, जनाब महेंद्र कुमार साहिब, जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहिब और जनाब विजय निकोरे साहिब। आप सभी की हौसला अफ़ज़ाई और मार्गदर्शन से यह अभ्यास जारी है। पाठकी टिप्पणियों से हम प्रोत्साहित होते हैं और सीखते हैं।
बहुत ही खूबसूरत लघु कथा... पढ़ता गया और कुछ हैरान भी हुआ कि आप लघु कथा इतनी अच्छी कैसे लिख लेते हैं।
हार्दिक बधाई
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,
बहुत ही कटाक्षपूर्ण लघुकथा । साहित्यिक क्षेत्र के बारे में कहा जाता है कि " अपना घर फूँक और तमाशा देख ।" आप मेरे कहने का आशय समझ गए होंगे । दिली मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए ।
साहित्य पर अच्छी व्यंग्यात्मक लघुकथा हुई है आ. शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
हार्दिक बधाई आदरणीय शेख उस्मानी साहब जी।बेहतरीन लघुकथा।
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