काफिया :अन ; रदीफ़ : को
बहर : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
अलग अलग बात करते सब, नहीं जाने ये' जीवन को
ये' माया मोह का चक्कर है’ कैसे काटे’ बंधन को|
किए आईना’दारी मुग्ध नारी जाति को जग में
नयन मुख के सजावट बीच भूले नारी’ कंगन को |
सुधा रस फूल का पीने दो’ अलि को पर कली को छोड़
कली को नाश कर अब क्यों उजाड़ो पुष्प गुलशन को|
बदी की है वही जिसके लिए हमने दुआ माँगी
न ईश्वर दोस्त ऐसे दे मुझे या मेरे दुश्मन को |
निगाह तेरी बड़ी पैनी मेरे दिल छेद डाली है
जिगर है खूंचकाँ मेरे सँभालो नज्र सोजन को |
धरा पर है अभी फिर आसमां पर है, ये' मन चंचल
नियंत्रण करना’ है मुश्किल बड़ा मन तीव्र तौसन को |
नया मौसम नया दस्ता नया है खेत खलिहान आज
कभी हम देखते हैं खेत फिर आबाद खिरमन को |
लुटेरा और नेता कर्म से तो एक जैसे हैं
भले दो नेता’ को गाली, दुआ ही देना’ रहजन को
|
घटा छाया दिवाकर भी, छुपा सावन बहुत रोया
सुनाए ना सुने ‘काली’ हरी चूड़ियों की’ खनखन को |
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
इस अच्छी गज़ल के लिए हार्दिक बधाई, आ० काली प्रसाद जी।
सुंदर गजल, हार्दिक बधाई ।
हौसला अफजाई के लिए तहे दिल से शुक्रिया आ मोहम्मद आरिफ जी | आदाब
अच्छी ग़ज़ल हुई आदरणीय...
आदरणीय कालीपद प्रसाद जी आदाब,
बहुत ही प्यारी हिंदी-उर्दू शब्दों के संयोजन से बनी ग़ज़ल । हर शे'र कुछ कहता है । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।
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