22 22 22 22 22 22 2
जब भी तेरी यादें जानां कम हो जाती हैं
मेरी आँखें और जियादा नम हो जाती हैं
दर्द संभालूँ आहें रोकूँ दिल को समझाऊँ
अश्क़ों की बरसातें बेमौसम हो जाती हैं
राह तुम्हारी तकते तकते आँखें पथराईं
साँसें भी चलते चलते मद्धम हो जाती हैं
रफ़्ता रफ़्ता रात चली और सवेरा आया
फिर ये होता है सोचें बरहम हो जाती हैं
उस दर पे दम तोड़ गई हर एक सदा मेरी
और सभी उम्मीदें 'ब्रज' बेदम हो जाती हैं
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी जी...स्नेह बनाये रखें...
तहेदिल से शुक्रिया ज़नाब मिश्रा जी...
आ. भाई ब्रजेश जी, सुंदर गजल हुई है हार्दिक बधाई ।
वाह वाह बहुत ही लाजवाब बृजेश कुमार जी
उचित है आदरणीय तस्दीक जी सुधार करता हूँ...सादर
जनाब ब्रजेश साहिब , हैं का इस्तेमाल करके जाती है सही है जातीं नहीं। आपके मिसरे में लय बाधित हो रही है , और मिसरों से मिलकर पढ़ें ,पता चल जाएगा ।
आदरणीय तस्दीक जी आपकी सार्थक समीक्षा के लिए सादर धन्यवाद..चूँकि बहुवचन की बात हो रही है इसलिए जातीं हैं रखा..मैं अभी भी असमंजस में हूँ क्या ये सही नहीं है?ज्यादा को आपके बताये अनुसार सही करता हूँ।लेकिन चौथा शेर बे बह्र है ये समझ नही आ रहा है!!
रात चली 2112 को हम 222 ले सकते हैं न इस बह्र में??
जनाब ब्रजेश कुमार साहिब , ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है ,मुबारकबाद कुबूल फरमायें । शब्द जातीं को जाती और जयादा को ज़ियादा करलें ।शेर4 उला बह्र में नहीं , यूँ कर सकते हैं "रफ्ता रफ्ता शब जाती और आता सवेरा है ।
बहुत बहुत आभार आदरणीय विजय जी...सादर
बहुत अच्छे एहसासों का प्रयोग किया है। हार्दिक बधाई, आ० बृजेश जी।
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