"हुआ क्या है ? पागल! कुछ तो बता।" सुमि की बार -बार भरती - पुछती आँखे देख कर तृषा ने जोर देकर पूछा।
"मुझे लगता है माँ का किसी के साथ...!" कह कर वह अपनी सबसे नजदीकी सखी के गले लगकर रो पड़ी।"
"क्याsss किसी के साथ....? तेरा दिमाग़ तो ठिकाने पर है ? ये शक़ कैसे पनपा तेरे मन में? उसने अविश्वास जताया।
आज वेलेंटाइन डे है ,जब तक पापा रहे , वह उनके लिए फूल खरीदतीं थीं । लेकिन आज जब वह नहीं हैं तो फिर किसके लिए खरीद रहीं थीं ?"
"मतलब तूने उन्हें फूल खरीदते देखा?"
"सिर्फ इतना ही नहीं आजकल काफी रात तक चैटिंग करती रहती हैं। आजकल बहुत खुश दिखाई पड़ती है। वरना पहले तो बस रोतीं रहती थीं।"
"यार! ये तो अच्छी बात है अगर वह उस दुख से उभर रहीं हैं तो ।"
"और उनका वेलेंटाइन...? मैं अपने पापा की जगह किसी और को एक पल के लिए बर्दाश्त नहीं कर सकती।"
"तो तू सीधे-सीधे पूछ ले ना ।"
"लेकिन अगर ऐसा कुछ नहीं निकला तो ...,उन्हें मेरा शक़ करना कितना बुरा लगेगा।"
"हाँ यह तो है।
अच्छा ये बता, तूने कब देखा आँटी को फूल लेते हुए?"
"अभी रास्ते में जब मैं पार्क आ रही थी।"
"वह विशेष तैयार थीं क्या?"
"नहीं?"
"इसका मतलब वह जहाँ भी जाएंगी तैयार तो होंगीं ना! चल अभी देर नहीं हुई, घर चलते हैं । वहाँ से वह जहाँ जाएंगी, अपन उनके पीछे।" दोनों घर का रूख करती हैं।
" माँ का स्कूटर तो खड़ा है।मतलब वह अंदर ही हैं।"
वह दोनों अंदर जाकर देखती हैं, तो लाइब्रेरी से माँ की किसी से आहिस्ता-आहिस्ता बात करने की आवाज़ आ रही थी। वह तृषा को वहीं बैठा कर, उस ओर बढ़ गयी।
" बिल्कुल टूट गयी थी राकेश ? ,
लेकिन अब पहले से बेहतर हूँ।
आज अगर मैं दुनियाँ से लड़ने के लिए फिर से तैयार हूँ , तो इनकी वजह से । आपकी कमी हमेशा खलेगी । आज के दिन ये लाल गुलाब मैं आपको देती आयी , आज आपकी जगह इन को दे रहीं हूँ। इन्होंने एक सच्चे साथी की तरह मुझे नकारात्मक होने से बचा लिया। " इतने में सुमि ने लाइब्रेरी का दरवाजा खोल दिया।
लाल गुलाब के फूल पुस्तकों के बीच रखे थे।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत -बहुत आभार आदरणीय तिवारी सरजी!
रोहिला जी की लघुकथा में जो रवानी है वह काबिले तारीफ है। मां का सस्पेंस अपने आप में एक उदाहरण रखता है। अंत भी एक पुस्तक तक जाकर सराहनीय स्थान बनाता है। संग्रहणीय रचना के लिए सादर धन्यवाद
शुक्रिया आदरणीय उस्मानी जी! सलाह पर ध्यान दूँगी।सादर
बहुत बढ़िया। राह दिखाती सकारात्मक संदेश वाहक रचना। हार्दिक बधाई आदरणीया राहिला जी। थोड़ी कसावट की जा सकती है।
बढ़िया लघुकथा हुई है आ राहिला जी | एक प्रश्न उठ रहा है मन में अन्यथा न लें तो -"सिर्फ इतना ही नहीं आजकल काफी रात तक चैटिंग करती रहती हैं। आजकल बहुत खुश दिखाई पड़ती है। वरना पहले तो बस रोतीं रहती थीं।"
आगे आपने कहा है माँ किताबों से बातें करती थीं | फिर उपयुक्त पंक्तियों को न भी लिखें तो ? चैटिंग वाली बात तो क्लियर नहीं हो पायी है | सादर |
बहुत शुक्रिया आदरणीय मिश्रा सर जी!
आदरणीया राहिला जी आपकी रचना में हमेश एक नयी सोच और ताजगी रहती है रचना का अंत सुखद लगा हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
हार्दिक बधाई आदरणीय राहिला आसिफ़ जी। बेहतरीन लघुकथा।एक यथार्थ को आपने लघुकथा में तब्दील कर दिया। सच में किताबों से बढ़कर कोई दोस्त नहीं होता।सादर।
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