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ग़ज़ल- समझा हूँ तेरे हुस्न के ज़ेरे ज़बर को में

221 2121 1221 212

ढूढा हूँ मुश्किलों से सलामत गुहर को मैं।
समझा हूँ तेरे हुस्न के जेरो जबर को मैं ।।

यूँ ही नहीं हूं आपके मैं दरमियाँ खड़ा ।
नापा हूँ अपने पाँव से पूरे सफर को मैं ।।

मारा वही गया जो भला रात दिन किया ।।
देखा हूँ तेरे गाँव में कटते शजर को मैं ।।

मत पूछिए कि आप मेरे क्या नहीं हुए ।।
पाला हूँ बड़े नाज़ से अहले जिगर को मैं ।।

शायद तेरे वजूद की कोई खबर मिले ।
पढ़ता रहा हूँ आज तलक हर खबर को मैं ।।

कुछ तो करम हो आपका उल्फत के नाम पर ।
रक्खूँगा आप पर भी कहाँ तक नज़र को मैं ।।

इस फ़ासले के दौर में ऐसा न हो कभी ।।
तेरे पनाह गाह में तरसूं बसर को मैं ।।

देखा है जब से आपको होशो हवाश गुम ।
कितना नशा शराब में परखा असर को मैं ।।

मैं तो अना ए हुस्न पे हैरान हूँ बहुत ।
अब तक उठा सका नहीं परदा क़मर का मैं ।।

गुजरी तमाम उम्र यहां इंतजार में ।
बस देखता ही रह गया शामो सहर को मैं ।।

 

नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Naveen Mani Tripathi on February 21, 2018 at 11:59pm

आदरणीय कबीर सर सादर नमन । सबसे पहले आपके स्वस्थ रहने की दुआ करता हूँ । आपके बिना ओबीओ सूना हो जाता है । आपकी बात पर ध्यान देकर ग़ज़ल की री राइटिंग करूँगा । आपके जैसे उस्ताद दुर्लभ हैं । 

Comment by Samar kabeer on February 21, 2018 at 10:02pm

जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब, "ग़ालिब'की ज़मीन में ग़ज़ल का प्रयास अभी और समय चाहता है,कई अशआर में रदीफ़ से इंसाफ़ नहीं हो सका, कई अशआर के दोनों मिसरों में रब्त नहीं पैदा हो सका, इस ज़मीन में फ़िल्म 'बरसात की रात'में 'साहिर की ग़ज़ल ज़रूर देखें,जिसका शैर है:-

'आई है उनके चाँद से चहरे को चूम कर

जी  चाहता है चूम लूँ अपनी नज़र को मैं'

और उसके बाद फिर प्रयास करें ।

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