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अहा! वत्सला मातृ द्रष्टा हुआ मैं।

भुजंग प्रयात छन्द (122 -122-122-122)

बड़ा तंग करता वो करके बहाने,
बड़ी मुश्किलों से बुलाया नहाने।
किया वारि ने दूर तंद्रा जम्हाँई,
तुम्ही मेरे लल्ला तुम्ही हो कन्हाई।

कभी डाँटके तो कभी मुस्कुरा के,
करे प्यार माता निगाहेँ चुराके।
बड़े कौशलों से किया मातु राजी,
पढ़ो लाल जीतोगे जीवन की बाजी।

सुना जी हिया-उर्मि के नाद को मैं,
कि आभास ऐसा छुआ चाँद को मैं।
अघाई निगाहें बटोरूँ दुआ मैं,
अहा! वत्सला मातृ द्रष्टा हुआ मैं।

'विनोद' (मौलिक-अप्रकाशित)

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Comment by नाथ सोनांचली on February 27, 2018 at 7:51pm

आद0 शरद जी सादर अभिवादन। भुजंगप्रयात का बढिया प्रयास पर छबद में मात्रा पतन नहीं लिया जाता, इस लिहाज से रचना समय माँगती है। बहरहाल इस प्रस्तुति पर कोटिश बधाई स्वीकार कीजिए

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 27, 2018 at 12:07pm

सुंदर भाव..।

Comment by Samar kabeer on February 26, 2018 at 5:52pm

जनाब विनोद जी आदाब, भुजंग प्रयात छन्द का अच्छा प्रयास है,लेकिन छन्द में मात्रा पतन की छूट नहीं होती,बहरहाल इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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