उतरती नहीं है धूप
तुम्हारे स्नेहिल मादक स्पर्श
मेरे शिशु-मन को स्वयं में समाविष्ट करते
प्राणदायक आत्मीय वसन्ती हवा-से
और फिर अचानक कभी-कभी
तुम्हारे रोष
पता नहीं थे वह
मुझसे दूर जाने के लिए
या थे बहाने वह तुम्हारे
बहका कर, बहला कर
मेरे और पास आने के लिए
जो भी थे
तुम्हारे रोष कभी
कठोर नहीं थे
मेरी अधूरी-सतही-बचकानी बातों पर
वसन्त में पीली सरसों के विस्तार-सी
कितनी सहज हँस पड़ती थी तुम
वह सारे गुस्से तुम्हारे पल भर में
उस हँसी में घुल जाते
छिप जाता था मैं निश्चिन्तित उस पल
ओढ़ कर सिर पर आँचल तुम्हारा
वह बचपन था
मासूम बचपन था वह
शिशु-हृदय पर अंकित
सिहर-सिहर अब आँसू भरा
वह कोई नश्वर सपना था
हुआ होगा ज़रूर कोई
महा-अपराध मुझसे
एक दिन रोष विधि का
बहुत कठोर हुआ मुझपर
कि जैसे कोई विशैला सर्प
मेरे सारे बदन पर रेंग गया
न डाक्टर, न दवा, न मैं
कोई तुम्हें न रोक सका
आँखे मूंद तुम चली गई
जहाँ से कोई न लौट सका
आज सुबह के ठिठुरते कोहरे में
शरद के मेरे उदास आँगन में
जब उतरती नहीं है धूप
सोचता हूँ पूछूँ प्रश्न तुमसे
जहाँ भी हो, देख-देख मुझको
माँ, तुम अभी भी हँस रही हो क्या ?
सान्ध्य-दीप-वेला में पाता हूँ तुमको
प्रति दिन निकट, कुछ और निकट
पूछूँ किस-किस पतंगे से माँ
नहीं हो तुम, क्या यह है भ्रम मेरा ?
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
इस मान और सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीया नीलम जी
इस मान और सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय लक्ष्मण जी
इस मान और सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय समर जी
इस मान और सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय हर्ष जी
इस मान और सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी
इस मान और सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय सुशील जी
आ. भाई विजय जी, बेहतरीन रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
जनाब भाई विजय निकोर जी आदाब,वाह वाह, बहुत ख़ूब क्या कहने कितनी मार्मिक कविता है, सीधी दिल में उतर गई, शब्द नहीं हैं मेरे पास इसकी तारीफ़ के लिए,आपकी सोच की परवाज़ कितनी बुलन्द है, वहाँ तक पहुँचने में पसीने में डूब जाता हूँ मैं तो,लेकिन शायद वहाँ तक पहुँचने में कामयाब नहीं होता, ऐसा महसूस होता है,मुझे,इस शानदार प्रस्तुति पर दिल से ढेरों मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
सान्ध्य-दीप-वेला में पाता हूँ तुमको, प्रति दिन निकट, कुछ और निकट
पूछूँ किस-किस पतंगे से माँ, नहीं हो तुम, क्या यह है भ्रम मेरा ?
अदरणीय विजय निकोर जी, नमसकर । कविता के एक-एक शब्द माँ की स्मृतियों में डूबता रहा । बहुत ही भाव प्रवण कविता । बधाई स्वीकार करें ।
आदर्णीय विजय निकोर जी आदाब ।
एक बहुत सृजनात्मक रचना मन को छूती हुई ।
"बहुत कठोर हुआ मुझपर
कि जैसे कोई विशैला सर्प
मेरे सारे बदन पर रेंग गया..."
बहुत उम्दा ।
सादर !
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