मौन-संबंध
असीम अँधेरी रात
भस्मीली परछाईं भी जहाँ दीखती नहीं
और न ही कहीं से वहाँ
कोई प्रतिध्वनि लौट कर आती है ...
इस अपार्थ रात में
छज्जे पर बैठी दूर तक तकती
तुम भी अब ऊबकर उकताकर
डरी-डरी-सी सोचती तो होगी
वह सब
जो कभी सोचा न था ...
सवाल ही नहीं उठता था तब
यह सब सोचने का
स्वप्न-सृष्टि में तब
घुमड़-घुमड़ आते
काले घनेरे बादल भी हमको
प्रकृति की दिव्य-छवि-से लगते थे
कि जैसे इस काटे-छंटे मिथ्यात्व में भी
अबूझ सार्थकता थी
एक-दूसरे से बँधे हुए भी
स्वछ्न्द थे हम
और स्नेहिल शब्दों की गुच्छियों में
एक दूसरे को बंदी बनाने की
कोशिश करी थी न तुमने
न मैंने ...
प्रश्न ही कहाँ उठता था तब ?
पर अब कोई काले घने आतंकवादी बादल
उनकी गरजन भयंकर, डरावनी
कि जैसे कोई हिंसक सिहँ
दहाड़ता पास चला आ रहा हो ...
कैसी विचित्रता है यह
या कहूँ कि है यह क्रूरता
कुछ भी ठहरता नहीं सामान्य-सा
है बस अब असाधारण अस्थिरता
तुममें, मुझमें भी
दहल जाता है दिल
काल्पनिक घने बादल-सी तिरती पसरती
अपने ही खयालों की बेसुध धाराओं से
ऐसे में प्राय: अब कुछ ऐसा भी हुआ ...
घूमते-फिरते उढ़ते बगूलों की तरह
लगातार चक्कर खाते खयालों में
आत्मीयता की उष्मा से संवेदित भावनाओं में
हिचकियाँ भरती, आँसू ठुलकाती
तुम धीरे से मेरे पास आ खड़ी हुई
बहुत पास आई, पर हर बार
अंतर-द्वार में आकुलित अनुभवों से सिंची
बिना कुछ बोले ही चली गई
मैं भी तुम्हारे खयालों में आकर
तुम्हारे माथे पर स्नेह का चुम्बन लगा कर
कितनी ही बार बिना कुछ कहे लौट आया
कुछ ऐसे ही सूनेपन में हममें
मौन से मौन का अटूट संबंध रहा
हम कुछ कह न सके कि जैसे ओठों पर हमारे
शब्द शब्दों को खोजते रहे
आँखें आँखों में किसी रहस्य को
ढूँढने का प्रयत्न करती
हर बार खाली, सिकुड़ती
अपनी ही गहराई में लौट आईं
कभी सोते कभी जागते अधूरे हम दोनों
कितनी ही बार तकलीफ़ भरे निज एकान्त में
अनजाने पलकों के पीछे ्मिले ...
दूर थे हम पर दूर हो कर भी दूर हो न पाए
अब जब सभी कुछ दीखता है
धुँधला-धुँधला
काँपते ओठ तुम्हारे अनदेखे अनजाने
कुछ कहने को आतुर तो हैं
पर कोई छटपटाहट घने खयालों में
या, कोई बर्फ़-सा जमा डर है तुममें
यह रोक रहे हैं आ-आकर तुमको कुछ कह पाने से
मानो कोई उलझे शब्द तुम्हारे ओठों तक आते ही
टुकड़े बन कर बिखर-बिखर जाते हैं ...
इस असीम अँधेरे सन्नाटे में सोचता हूँ पूछूँ कर-बद्ध तुमसे
ऐसे लड़खड़ाते मौन-संबंध में बड़े-बड़े दर्द छिपाए
तुमने अब तक, प्रिय, मेरे संग रहना क्यूँ स्वीकार किया ?
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
//वो लेखन सफल है जिसे पढ़ते हुए रौंगटे खड़े हो जाएं.//
ऐसी सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय बृजेश जी।
वो लेखन सफल है जिसे पढ़ते हुए रौंगटे खड़े हो जाएं..वैसे तो सम्पूर्ण कविता ही अद्भुत भावों को समेटे हुए है..लेकिन अंतिम दो पंक्तियाँ बार बार पढ़ी और हर बार ज़िस्म में सिहरन सी दौड़ गई..
आ. भाई विजय जी, अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
भाई समर जी, आपकी सुविचारित प्रतिक्रिया सदैव अमूल्य है, और आप यह जानते ही हैं ... बहुत आभारी हूँ आपका। यह रचना पोस्ट करने से पहले मुझको भी इसकी तवालत ठीक नहीं लग रही थी, अत: इसको बार-बार पढ़ा ... देखा कि अभिव्यक्ति में भावों का sequence connected था तो पोस्ट कर दी। अच्छा है कि आपने इस ओर संकेत किया... आपका आभार, भाई समर जी।
जनाब भाई विजय निकोर जी आदाब,हमेशा की तरह आपकी शानदार कविता पढ़ने को मिली,आप बहुत सोच समझ कर क़लम उठाते हैं,मैं इस बात से वाकिफ़ हूँ,लेकिन एक बात का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है कि कविता बहुत ज़ियादा तवील न हो,क्योंकि कविता जब ज़ियादा तवील हो जाती है तो कविता नहीं रहती,कहानी हो जाती है,बहरहाल इस शानदार प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आपसे मिली यह सराहना अनमोल है, आदरणीय शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी। हार्दैक आभार।
बेहतरीन विशेषण और बिम्बों में सारगर्भित भाव/संदेश सम्प्रेषण। हार्दिक बधाई आदरणीय विजय निकोरे साहिब इस सृजन के लिए।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय नादिर खान जी।
अति उत्तम सृजन बधाई स्वीकारें .....
आ० कल्पना बहन, सराहना से मेरा होंसला बढ़ाने के लिए आभार।
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