२२१२ २२१२
किसने किया तुझसे मना
कर प्रेम की आराधना
चारों तरफ ही प्रेम की
मौजूद है सम्भावना
हों झुर्रियाँ जिस हाथ में
मौका मिले तो थामना
करना किसी की भी नहीं
बिन बात के आलोचना
माहौल है, अब कलयुगी
होती न सच की साधना
कोई हँसे फुटपाथ पर
कोई महल में अनमना
आसान कब है जिदंगी
है मुश्किलों से सामना
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
@ बसंत कुमार शर्मा, जबलपुर
Comment
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी ह्रदय से आभार आदरणीय आपका
आदरणीय समर कबीर जी आपके बहुमूल्य सुझाव का तहे दिल से शुक्रिया , मैंने सुधार कर लिए है
आद0 बसन्त जी बेहतरीन ग़ज़ल के लिए दिली मुबारकबाद कुबूल फरमाएं
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,ग़ज़ल अच्छी लगी,बधाई स्वीकार करें ।
मतले के ऊला मिसरे में 'तुझसे' की जगह "तुझको" करना उचित होगा ।
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद
आ. भाई बसंत जी, बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय Harash Mahajan जी आपका दिल से शुक्रिया
आदरणीय Ajay Tiwari जी आपका दिल से शुक्रिया
आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी ह्रदय से आभार आपका
आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी आपकी प्रेरक प्रतिक्रिया एवं सुझाव का ह्रदय से आभार, सुधार लेता हूँ.
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