कब निकले बाहर महलों से,
वन में गीत कभी गाये क्या
पूजा करते रहे राम की,
राम सरीखे बन पाये क्या
भाई को कब भाई समझा,
हर विपदा में किया किनारा
दीवारों पर दीवारें चिन,
करते रहे रोज बटवारा.
चरण पादुका पाने उनकी,
आतुर होकर धाये क्या.
छुआछूत का रोग मिटाने,
चर्चाएँ तो हुईं बहुत सी
मगर शिलाएँ पड़ी हुईं हैं
जंगल में अनछुईं बहुत सी
झूठे बेर कभी शबरी के,
वन में जाकर खाए क्या
पाले-पोषे हैं खरदूषण,
रावण का संहार किया कब
राम राज्य बस रही कल्पना,
सपना यह साकार किया कब
त्याग तपस्या की इक मूरत,
खुद को कभी बनाये क्या.
"मौलिक एवं अप्रकाशित "
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी आपका दिल से शुक्रिया
आदरणीय TEJ VEER SINGH जी आपका दिल से शुक्रिया
आ. भाई बसंत जी, सुंदर रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
बेहतरीन कविता आदरणीय बसंत कुमार जी। हार्दिक बधाई।
आदरणीय समर कबीर जी दिल से शुक्रिया आपका
आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी दिल से शुक्रिया आपका
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी,सुंदर प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
उत्तम बहुत ही उत्तम भाव रचना..बहुत बहुत बधाई आदरणीय
परिमार्जन उपरांत, पुनः प्रस्तुत
कब निकले बाहर महलों से,
वन में गीत कभी गाये क्या ?
पूजा करते रहे राम की,
राम सरीखे बन पाये क्या ?
भाई को कब भाई समझा,
हर विपदा में किया किनारा
दीवारों पर दीवारें चिन,
करते रहे रोज बटवारा.
चरण पादुका पाने उनकी,
तुम आतुर होकर धाये क्या ?
पाले-पोषे हैं खरदूषण,
रावण का संहार किया कब
राम राज्य बस रही कल्पना,
सपना यह साकार किया कब
त्याग तपस्या की इक मूरत,
खुद को भी कभी बनाये क्या ?
छुआछूत का रोग मिटाने,
चर्चाएँ तो हुईं बहुत सी
मगर शिलाएँ पड़ी हुईं हैं
जंगल में अनछुईं बहुत सी
झूठे बेर कभी शबरी के,
वन में घर जाकर खाए क्या ?
आदरणीय somesh kumar जी आपका दिल से शुक्रिया
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