कब निकले बाहर महलों से,
वन में गीत कभी गाये क्या
पूजा करते रहे राम की,
राम सरीखे बन पाये क्या
भाई को कब भाई समझा,
हर विपदा में किया किनारा
दीवारों पर दीवारें चिन,
करते रहे रोज बटवारा.
चरण पादुका पाने उनकी,
आतुर होकर धाये क्या.
छुआछूत का रोग मिटाने,
चर्चाएँ तो हुईं बहुत सी
मगर शिलाएँ पड़ी हुईं हैं
जंगल में अनछुईं बहुत सी
झूठे बेर कभी शबरी के,
वन में जाकर खाए क्या
पाले-पोषे हैं खरदूषण,
रावण का संहार किया कब
राम राज्य बस रही कल्पना,
सपना यह साकार किया कब
त्याग तपस्या की इक मूरत,
खुद को कभी बनाये क्या.
"मौलिक एवं अप्रकाशित "
Comment
आदरणीय Ajay Tiwari जी आपकी बेशकीमती प्रतिक्रिया एवं सुझावों का ह्रदय से स्वागत है , आपने पारखी नजरों को सलाम
आदरणीय वसंत जी, गीत बहुत अच्छा है, हार्दिक बधाई.
छुआछूत का रोग मिटाने, > छुआछूत की रोक थाम पर
चर्चाएँ तो हुईं बहुत सी
कुछ पंक्तियों की मात्राएँ अन्य पंक्तियों की तरह 16 कर लेना मेरे ख़याल से बेहतर रहेगा :
चरण पादुका पाने उनकी,
आतुर होकर धाये क्या. > आतुर होकर तुम धाये क्या.
झूठे बेर कभी शबरी के,
वन में जाकर खाए क्या > वन में जाकर खा पाए क्या
त्याग तपस्या की इक मूरत,
खुद को कभी बनाये क्या. > खुद को कभी बना पाये क्या
सादर
अच्छा व्यंग्य गीत है |बधाई |
इसी बात को एक मुहावरें से कहते हैं -मुख में राम बगल में छूरी |
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