२११२/ १२१२ // २११२/ १२१२
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जिसका मैं मुन्तज़िर रहा पल में वो पल गुज़र गया,
और वो लम्हा बीत कर अपनी ही मौत मर गया.
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मेरा सफ़र तवील है दूर हैं मंज़िलें मेरी
दुनिया फ़क़त सराय है रात हुई ठहर गया.
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कोई छुअन थी मलमली कोई महक थी संदली
ख़ुद में जो उस को पा लिया मुझ में जो मैं था मर गया.
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सारे तिलिस्म तोड़ कर अपनी अना को छोड़ कर
तेरे हवाले हो के मैं अपने ही पार उतर गया.
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पीठ थी रौशनी की ओर साये को देखते रहे
“नूर” से जब नज़र मिली, वक़्त वहीँ ठहर गया.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. तेजवीर सिंह जी
हार्दिक बधाई आदरणीय नीलेश जी। बेहतरीन गज़ल।
कोई छुअन थी मलमली कोई महक थी संदली
ख़ुद में जो उस को पा लिया मुझ में जो मैं था मर गया.
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धन्यवाद आ. अजय जी
धन्यवाद आ. लक्षमण धामी जी
आदरणीय निलेश जी, उम्दा ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई.
आ. भाई नीलेश जी, उम्दा गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
धन्यवाद आ समर सर, मैं तरमीम कर लेता हूँ।
धन्यवाद आ मोहम्मद आरिफ साहब।
जनाब निलेश 'नूर'साहिब आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
तीसरे शैर के ऊला में 'मलमली' की जगह "मख़मली" कर लें तो मज़ा आ जाये ।
जिसका मैं मुन्तज़िर रहा पल में वो पल गुज़र गया,
और वो लम्हा बीत कर अपनी ही मौत मर गया. वाह! वाह!! क्या ख़ूब मतला कहा है हुज़ूर ने । मज़ा आ गया ।
इस बेहतरीन और बेजोड़ ग़ज़ल के लिए दिली मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए आदरणीय नीलेश जी ।
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