विहग निज चोंच में देखो,,,,,,
विहग निज चोंच में देखो, अहा! मछली दबोचे है|
फँसी खग कंठ में मछली, पड़े तन पर खरोंचे हैं ||
विहग औ मीन दोनों इक, सरीखे ही अबोले हैं |
मगर इक हर्ष दूजी भय, सँजोये आँख बोले हैं |१ |
उदर की भूख मिट जाए, यही चाहत विहग पाले |
वहीं पर मीन के देखो, पड़े हैं जान के लाले ||
सलामत जान की अपने, खुदा से चाहती मछली |
निवाला छूट ना जाए, यही मन सोचती बगुली |२ |
मौलिक और अप्रकाशित
-सत्यनारायण सिंह
Comment
आदरणीय ब्रजेश कुमार जी प्रस्तुति पर उपस्थित होकर प्रोत्साहित करने के लिए आपका हृदय से आभार प्रकट करता हूँ
जी आदरणीय आपकी पारखी नजर की जितनी प्रसंशा की जाय कम है आदरणीय आपने बिलकुल सही कहा है पड़े यह शब्द मुझे भी खटक रहा था किन्तु दुविधा में उस ऒर अधिक ध्यान नहीं दिया. आपके इक इशारे ने मेरी दुविधा का निराकरण कर दिया है. मेरे विचार से दिखे या फिर लगे शब्द यहाँ पर उचित होगा। इस सन्दर्भ में आपके एवं गुणीजनों के राय की प्रतीक्षा रहेगी .सादर धन्यवाद
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी प्रस्तुति पर उपस्थित होकर प्रोत्साहित करने के लिए आपका हृदय से आभार प्रकट करता हूँ
आदरणीय विजय निकोरे जी प्रस्तुति पर उपस्थित होकर प्रोत्साहित करने के लिए आपका हृदय से आभार प्रकट करता हूँ
अच्छी रचना है आदरणीय..छन्दों की बहुत जानकारी नहीं है..लेकिन ऊपर से दूसरी पंक्ति में खरोचें के साथ पड़े कुछ जम नहीं रहा..सादर
बहुत सुंदर रचना हुई है हार्दिक बधाई ।
सुन्दर रचना के लिए बधाई
आदरणीय समर कबीर जी प्रस्तुति पर उपस्थित होकर प्रोत्साहित करने के लिए हृदय से आपका आभारी हूं आदरणीय
जनाब सत्यनारायण सिंह जी आदाब,सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय बसंत कुमार जी सादर
आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी हेतु आपका हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ.
आदरणीय मोहम्मद आरिफ जी सादर
रचना पर उपस्थित होकर उत्साहवर्धन के लिए आपका हृदय से आभारी हूँ.
आदरणीय विधाता छंद में रचना करने का मेरा यह प्रथम प्रयास ही है
सादर
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