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ग़ज़ल(याद आती हैं जब)
212 212 212 212

याद आतीं हैं जब आपकी शोखियाँ,
और भी तब हसीं होतीं तन्हाइयाँ।

आपसे बढ़ गईं इतनी नज़दीकियाँ,
दिल के लगने लगीं पास अब दूरियाँ।

डालते गर न दरिया में कर नेकियाँ,
हारते हम न यूँ आपसे बाज़ियाँ।

गर न हासिल वफ़ा का सिला कुछ हुआ,
उनकी शायद रही कुछ हों मज़बूरियाँ।

मिलता हमको चराग-ए-मुहब्बत अगर,
राह में स्याह आतीं न दुश्वारियाँ।

हुस्नवालों से दामन बचाना ए दिल,
मात दानिश को दें उनकी नादानियाँ।

आग मज़हब की जो भी लगातें 'नमन',
इसमें अपनी ही वे सेकतें रोटियाँ।

पुछल्ला

आठ पूरे किए साल खुशहाली के,

ओ बी ओ यूँ ही छूएगा ऊँचाइयाँ।


दानिश=अक्ल, बुद्धि

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Harash Mahajan on April 7, 2018 at 8:48am

आदरनीय बासुदेव जी,बहुत ही सुंदर गजल हुई है हार्दिक बधाई ।

सादर !

Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on April 5, 2018 at 5:05pm

आ0 नीलेश जी बहुत आभार। 

Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on April 5, 2018 at 5:03pm

आ0 लक्ष्मण धामी जी बहुत आभार।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 5, 2018 at 7:21am

आ. बासुदेव जी,
ग़ज़ल का उम्दा प्रयास हुआ   है .. बधाई 
जैसा समर सर ने कहा कि कई   जगह अनुस्वार ठीक नहीं लगे हैं जिस पर समय दीजिये 
सादर 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 5, 2018 at 7:10am

आ. भाई बासुदेव जी, सुंदर गजल हुई है हार्दिक बधाई ।

Comment by Samar kabeer on April 4, 2018 at 8:01pm

मेरे कहे को मान देने के लिए धन्यवाद ।

Comment by Samar kabeer on April 4, 2018 at 7:57pm

मेरे कहे को मान देने के लिए धन्यवाद ।

Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on April 4, 2018 at 6:39pm

आ0 समर साहिब ग़ज़ल में शिरकत के लिए आभार। ग़ज़ल में आपकी इस्लाह के अनुसार कुछ सुझाव कर दिए हैं।

Comment by Samar kabeer on April 3, 2018 at 11:11am

जनाब बासुदेव अग्रवाल 'नमन' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें

कुछ अशआर में शिल्प कमज़ोर हैं,कई जगह अनुस्वार लगना थे,जो नहीं लगे,देखियेगा ।

तीसरे शैर के ऊला में कुएं में नेकी डालने का ज़िक्र है, लेकिन मुहावरा तो नेकी कर दरया में डाल ,है ।

6ठे शैर के ऊला में 'हुश्नवालों' की जगह "हुस्न वालों" कर लें ।

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