ग़ज़ल(याद आती हैं जब)
212 212 212 212
याद आतीं हैं जब आपकी शोखियाँ,
और भी तब हसीं होतीं तन्हाइयाँ।
आपसे बढ़ गईं इतनी नज़दीकियाँ,
दिल के लगने लगीं पास अब दूरियाँ।
डालते गर न दरिया में कर नेकियाँ,
हारते हम न यूँ आपसे बाज़ियाँ।
गर न हासिल वफ़ा का सिला कुछ हुआ,
उनकी शायद रही कुछ हों मज़बूरियाँ।
मिलता हमको चराग-ए-मुहब्बत अगर,
राह में स्याह आतीं न दुश्वारियाँ।
हुस्नवालों से दामन बचाना ए दिल,
मात दानिश को दें उनकी नादानियाँ।
आग मज़हब की जो भी लगातें 'नमन',
इसमें अपनी ही वे सेकतें रोटियाँ।
पुछल्ला
आठ पूरे किए साल खुशहाली के,
ओ बी ओ यूँ ही छूएगा ऊँचाइयाँ।
दानिश=अक्ल, बुद्धि
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरनीय बासुदेव जी,बहुत ही सुंदर गजल हुई है हार्दिक बधाई ।
सादर !
आ0 नीलेश जी बहुत आभार।
आ0 लक्ष्मण धामी जी बहुत आभार।
आ. बासुदेव जी,
ग़ज़ल का उम्दा प्रयास हुआ है .. बधाई
जैसा समर सर ने कहा कि कई जगह अनुस्वार ठीक नहीं लगे हैं जिस पर समय दीजिये
सादर
आ. भाई बासुदेव जी, सुंदर गजल हुई है हार्दिक बधाई ।
मेरे कहे को मान देने के लिए धन्यवाद ।
मेरे कहे को मान देने के लिए धन्यवाद ।
आ0 समर साहिब ग़ज़ल में शिरकत के लिए आभार। ग़ज़ल में आपकी इस्लाह के अनुसार कुछ सुझाव कर दिए हैं।
जनाब बासुदेव अग्रवाल 'नमन' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें
कुछ अशआर में शिल्प कमज़ोर हैं,कई जगह अनुस्वार लगना थे,जो नहीं लगे,देखियेगा ।
तीसरे शैर के ऊला में कुएं में नेकी डालने का ज़िक्र है, लेकिन मुहावरा तो नेकी कर दरया में डाल ,है ।
6ठे शैर के ऊला में 'हुश्नवालों' की जगह "हुस्न वालों" कर लें ।
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