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अन्याय के विरोध में जाने से डर लगा ।।
भारत का संविधान बताने से डर लगा ।।
यूँ ही बिखर न जाये कहीं मुल्क आपका ।
कोटे पे आज बात चलाने से डर लगा ।।
घोला है ज़ह्र अपने गुलशन में इस तरह ।
अब जिंदगी को और बचाने से डर लगा ।।
फर्जी रपट लिखा के वो अंदर करा गया ।
मैं बे गुनाह था ये बताने से डर लगा ।।
शोषित हुआ सवर्ण करे भी तो क्या करे ।
उसको तो अपना ज़ख्म दिखाने से डर लगा ।।
कैसी स्वतन्त्रता है ये आजाद मुल्क की ।
अब लोकतंत्र देश में लाने से डर लगा ।।
जो छीनता है रोटियां बच्चों के हाथ से ।
ऐसे वतन पे जान लुटाने से डर लगा ।।
लाचार कर दिया है सियासत की मार ने।
मुझको तो अपनी जात लिखाने से डर लगा ।।
जो राष्ट्र द्रोह कर रहे भारत को बंद कर ।
गुंडो से कत्ले आम कराने से डर लगा ।।
नामो निशां मिटाने की हसरत लिए हैं वे ।
उनसे तो आज हाथ मिलाने से डर लगा ।।
ठग कर गयी है खूब ये जम्हूरियत मुझे ।
अपना यहां वजूद बचाने से डर लगा ।।
-- नवीन मणि त्रिपाठी
Comment
भाई डॉ आशुतोष नारायण मिश्र जी सप्रेम आभार । टाइप में त्रुटि है बन्धु ।
घोला है ज़ह्र अपने गुलशन में इस तरह ।अपने की जगह शायद आपने होगा बह्र की दृष्टि से
आदरणीय ..इस रचना पर हार्दिक शुभकामनाएं सादर
आ0 श्याम नरायण वर्मा जी हार्दिक आभार ।
आ0 समर कबीर सर सादर नमन के साथ हार्दिक आभार
आ0 सुशील सरन जी सादर आभार ।
वाह ! बहुत खूब | सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई | सादर |
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
अन्याय के विरोध में जाने से डर लगा ।।
भारत का संविधान बताने से डर लगा ।।
यूँ ही बिखर न जाये कहीं मुल्क आपका ।
कोटे पे आज बात चलाने से डर लगा ।।
बहुत उम्दा आदरणीय नवीन मणि जी। .... आज के सन्दर्भ की जीवंत व्याख्या। हार्दिक बधाई स्वीकार करें सर।
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