अनकही ख़ामोशियाँ
बहुत कुछ कहती है
उनका शोर बहुत दूर तक सुनाई देता है
उन ख़ामोशियों की ज़मीन पे
बीज अंकुरित होते हैं
बहुत कुछ कहने के
मगर अनकही ख़ामोशियाँ
ख़ामोश बनकर रह जाती है
जैसे हड़ताल की अधूरी रह जाती है माँगें
जो कभी पूरी नहीं होती है
और माँगें हड़ताल को चलाती है
अतीत की स्मृतियों को भी
दबाती है अनकही ख़ामोशियाँ
धीरे-धीरे अनकही ख़ामोशियाँ
कब भीतर की तपिश बन जाती है
पता ही नहीं चलता है
यह तपिश
लावा बनकर फूट पड़ती है
अनकही ख़ामोशियों का
लावा पिघलना भी ज़रूरी है ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।
Comment
आपकी त्वरित टिप्पणी से लेखन सार्थक हो गया आदरणीय हर्ष महाजन जी । हार्दिक आभार ।
वाह आ.आरिफ साहब बहुत ही खूबसूरत...
'धीरे-धीरे अनकही ख़ामोशियाँ
कब भीतर की तपिश बन जाती है
पता ही नहीं चलता है...." क्या बात है...सही कहा सर । दिली दाद इस खूबसूरत पेशकश पर ।
सादर ।
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